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________________ २४० गो० जीवकाण्डे 'लवणंबुहिसुहमफळे चउरस्से एक्कजोयणस्सेव । सुहुमफळेणवहरिदे वर्ल्ड मूळं सहस्सवेहगुणं ॥-[त्रि. सा. १०३ ] रोमहदं छक्केसजलु सेगे पण्णुवीस समयात्ति । संपादं करिय हदे केसेहि सागरुप्पत्ती ॥'-[ त्रि. सा. १०४ ] ५ लवणसमुद्रदायत चतुरस्रसूक्ष्मफलमं तंदु : 'अंताइसूइजोग्रां रुद्धद्धगुणित्तु दुप्पीड किच्चा । तिगुणं दसकरणि गुणं बादरसुहमं फलं वलए ॥'- [ त्रि. सा. ३१५ ] अंतसूची। ५ ल । आदिसूची १ ल । यो ६ ल रुंद्रार्द्धगुणं ६ ले ल। द्विप्रतीकं माडियोंदु राशियं त्रिगणिसिदडे बादरक्षेत्रफलमक्कमोद राशियं दशकरणिय गणिसिदडे वर्गात्मकसक्ष्मफल १. मक्कु। ६ ल ल ६ ल ल १० । मिदनेक योजनसूक्ष्मफलदिदं भागिसलु वृत्त पल्यगतंगळप्पु ६ ल ल । ६ ल ल १० विवनपत्तिसिदडे दशकराणिगे दशकरणि होगि 'हारस्य हारो गुणकोश १ --- त्रैराशिकेन लब्धमात्रसमया भवन्ति इत्यर्थः विछे छे ३ । ( अद्धापल्यं हि निजाधच्छेदराशेरुपरि असंख्यात १J२५ को २ वर्गस्थानानि गत्वा उत्पन्न इति ज्ञातव्य ) एवं पल्पान्युक्तानि । तत्राद्यन पल्येन रोमसंख्या, द्वितीयेन द्वीपसमुद्रसंख्या, तृतीयेन कर्मस्थित्यादिश्च वर्ण्यते । तैस्तैर्दशभिः कोटिकोटिभिः, एकैकं तत्तनाम सागरोपमं भवति । तस्योपपत्तिरुच्यते-लवणसमुद्रस्यान्तःसूची ५ ल, तथादि सूची १ ल। अनयोर्योगः ६ ल । अस्मिन् रुन्द्रार्धन १ ल गुणिते सति यल्लब्धं तदिदं ६ ल ल वर्गात्मकं कृत्वा ६ ल ल ६ ल ल दशभिः करण्यात्मभिर्गुणिते सूक्ष्मफलवर्गो भवति . ६ ल ल । ६ ल ल १० । इमं एकयोजनव्यासवृत्तस्य सूक्ष्मक्षेत्रफलेन ६ ल ल । ६ ल ल । १० । भक्त्वा दशकरण्या दशकरणिम इनमें से प्रथम पल्यसे रोम संख्या, दूसरेसे द्वीपसमुद्रोंकी संख्या और तीसरेसे कर्मोकी स्थिति १. आदि जानी जाती है। प्रत्येक पल्यको दस कोड़ाकोड़ीसे गुणा करनेपर अपने-अपने नामका एक-एक सागर होता है । उसकी उपपत्ति कहते हैं लवणसमुद्रको अन्तसूची पाँच लाख और आदि सूची एक लाख है। दोनोंको मिलानेपर छह लाख होते हैं । इसको लवणसमुद्र के दो लाख व्यासके आधे एक लाखसे गुणा करनेपर छह लाख लाख होते हैं । इसका वर्ग करके उसे दससे गुणा करनेपर ६ ल. ल. x ६ ल. ल.x १० यह परिधिरूप क्षेत्र हुआ। इस परिधिरूप क्षेत्रफलको एक योजन व्यासवाले गोलाकार पल्यके गड्ढे के सूक्ष्म क्षेत्रफलसे भाग देनेपर ६ ल. ल. x ६ ल. ल. x १० दससे xx१० दसका अपवर्तन करके तथा 'भागहारका भागहार राशिका गुणाकार होता है', इस नियमके १. म ६ ल । १ ल। २. रेखाङ्कितभागो नास्ति बप्रतौ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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