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________________ २६ गोम्मटसार जीवकाण्ड जीवकाण्ड' में जीव समासों की प्ररूपणा उक्त स्थानों के द्वारा, योनियों के द्वारा, शरीर के अवगाहना के द्वारा और कलों के द्वारा की गयी है। इन सबका जीवसमास में अभाव है। ३. पर्याप्तिका कथन जीवसमास में दो गाथाओं से है। ये दोनों गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। किन्त इनके सिवाय नौ गाथाएँ अधिक हैं, जिनके द्वारा अपनी-अपनी पर्याप्तियों के प्रारम्भ और पूर्ति का काल, पर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त का काल, लब्ध्यपर्याप्तक का स्वरूप आदि का विस्तृत कथन है। ४. जीवसमास में प्राणप्ररूपणा का कथन छह गाथाओं में है। इनमें-से तीन गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। इनके सिवाय दो गाथाएँ भिन्न हैं जिनमें प्राणों की उत्पत्ति, सामग्री तथा स्वामी कहे हैं। ५. जीवसमास में संज्ञाप्ररूपणा पाँच गाथाओं में है। ये पाँचों गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। इनके सिवाय एक गाथा अन्य है जिसमें संज्ञाओं के स्वामी कहे हैं। आगे चौदह मार्गणाओं का कथन प्रारम्भ होता है। १. गतिमार्गणा-जीवसमास में प्रारम्भ में मार्गणा का स्वरूप और भेद कहे हैं। ये दोनों गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। इसके पश्चात् जीवकाण्ड में आठ सान्तर मार्गणाओं का कथन है जो जीवकाण्ड में नहीं हैं। गति का स्वरूप दोनों में कहा है, किन्तु गाथा में भेद है। इसके पश्चात् जीवसमास में पाँच गाथाओं के द्वारा नरकगति, तिर्यंचगति, मनष्यगति, देवगति और सिद्धगति का स्वरूप कहा है। ये पाँचों गाथाएँ भी जीवक यहाँ से दोनों में एक मौलिक अन्तर प्रारम्भ होता है। वह यह है कि जीवकाण्ड में प्रत्येक मार्गणाप्ररूपणा के अन्त में उस मार्गणावाले जीवों की संख्या भी जीवट्ठाण के द्रव्यप्ररूपणानुगम के अनुसार दी है; किन्तु जीवसमास में वह सब कथन नहीं है। और इस दृष्टि से जीवकाण्ड का महत्त्व जीव समास से बहुत बढ़ जाता है। जीवकाण्ड के इस अधिकार में ग्यारह गाथाओं के द्वारा चारों गतियों में जीवों की संख्या कही है। संख्या सम्बन्धी ये गाथाएँ नेमिचन्द्राचार्य की हैं। कहीं से उद्धृत नहीं हैं। २. इन्द्रियमार्गणा-जीवसमास में इन्द्रियमार्गणा की प्ररूपणा दस गाथाओं में हैं। उनमें से आदि और अन्तिम तथा एक मध्य की इस तरह केवल तीन गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। जीवकाण्ड के इस प्रकरण में सतरह गाथाएँ हैं, जिनमें से छह गाथाओं में संख्याप्ररूपणा है। शेष गाथाओं में इन्द्रियों का विषय क्षेत्र, उनकी अवगाहना आदि कही है जो जीवसमास में नहीं है। जीवसमास में दो इन्द्रिय आदि जीवों के भेद कहे हैं जो धवला में भी कहे हैं, किन्तु जीवकाण्ड में वे भेद नहीं कहे हैं। उन्हें विशेष उपयोगी न समझा हो, यह सम्भव है। ३. कायमार्गणा-जीवसमास में कायमार्गणा का वर्णन तेरह गाथाओं में है। उनमें से नौ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं, जिन चार गाथाओं में पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों के भेद कहे हैं, वे गाथाएँ जीवकाण्ड में नहीं हैं। जीवकाण्ड में इस प्रकारण में पैंतीस गाथाएँ हैं, जिनमें-से ग्यारह गाथाओं में तो संख्या कही है। वनस्पतिकाय के प्रत्येक और साधारणकाय की पहचान चार गाथाओं से कही है। त्रसजीवों का निवासस्थान, सप्रतिष्ठितशरीर, स्थावर तथा सजीवों के शरीर का आकार आदि अनेक विशिष्ट और उपयोगी कथन इस प्रकारण में हैं जो जीवसमास में नहीं हैं। ४. योगमार्गणा-जीवसमास में योगमार्गणा के कथन में तेरह गाथाएँ हैं। जिनमें से प्रायः दस गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। किन्तु जीवकाण्ड के इस प्रकारण में चौवन गाथाएँ हैं, जिनमें से बारह गाथाओं में संख्या कही है। जीवसमास में दस प्रकार के सत्यवचन और अनुभय भाषा का निर्देश मात्र है। किन्तु जीवकाण्ड में पाँच गाथाओं से उनका कथन किया है। सयोगकेवली के मनोयोग की सम्भावना सहेतुक बतलायी है। आहारक काययोग के स्वरूप, प्रयोजन आदि का कथन पाँच गाथाओं से किया है। शरीरों में कर्म-नोकर्म का विभाग करके प्रत्येक शरीर के निर्माण में संलग्न समयप्रबद्धों की संख्या कही है। कर्म और नोकर्म के उत्कृष्ट संचय का स्वरूप और स्थान के साथ उत्कृष्ट संचय की सामग्री भी कही है। तथा शरीरों में संलग्न समयप्रबद्धों के प्रतिसमय बन्ध, उदय और सत्त्व का प्रमाण कहा है। यह सब कथन करणानुयोग में अपना विशेष स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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