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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २२१ गळ्नडेदावलिय घनं पुट्टिदुददरि नंतरमे प्रतरावलिवृदं पुट्टिदु १।४।८। १६ । ३२ । ६४ दल्लिदं ०।१।२।३।४।५।६ मेलसंख्यातवर्गस्थानगळं नडेदु पल्यवर्गशलाकाघनं पुट्टिदुल्लिदं मेले असंख्यातवर्गस्थानंगळं नडेदु पल्यच्छेदघनं पुट्टिदुल्लिदं मेल असंख्यातवर्गस्थानंगलं नडेदु पल्यप्रथममूलवृंदं पुट्टिदुदरे नंतरमे पल्यघनं पुट्टिदुटुल्लिदं मेलसंख्यातवर्गस्थानंगळं नडेदु वृंदांगुलं पुट्टिदुल्लिदं मेलसंख्यात- ५ वर्गस्थानंगळं नडदु जगच्छेणि पुट्टिदुददरनंतरमे लोकप्रतराकाशप्रदेशप्रचयं पुट्टिदुल्लिदं मेलनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडदु जीववर्गशलाकाघनं पुट्टिदुल्लिदं मेलनंतानंतवग्रांस्थानंगळं नडदु जीव राश्यर्द्धच्छेदवंदं पृद्विदुल्लिदं मेलनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडेदु जीवप्रथममूलघनं पुट्टिदुल्लिदं मेलनंतरमे जीवधनं पुट्टिदुल्लिदं मेलनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडेदु श्रेण्याकाशवर्गशलाकाघनं पुष्टिदुल्लिदं मेलयुमनंतानंतवर्गस्थानगळं नडे दु श्रेण्याकाशार्द्धच्छेदघनं पुट्टिदुल्लिदं मेलनंता- १० नंतवर्गस्थानंगळं नडेदु श्रेण्याकाशप्रथममूलघनं पुट्टिददनंतरमदनोम्म वर्गगोळल् श्रेण्याकाशघनरूपमप्प साकाशप्रदेशप्रचयप्रमाणराशि पुट्टिदुल्लिदं मेलनंतानंतवर्गस्थानंगळ निरंतरं स्वस्थाने रूपाधिकाः परस्थाने तत्प्रणिधौ समाना भवन्ति । अर्धच्छेदराशिद्विरूपवर्गधाराया राशेर्वर्गशलाकामात्रेषु राशिश्च धारात्रये तदर्धच्छेदमात्रेषु च द्विकेषु गुणितेषु भवति । का वर्गशलाका ? राशेर्वगितवारः, द्विरूपवर्गधारायामेवार्धच्छेदराशेरधितवारो वा भवति । कोऽर्धच्छेदः ? राशेरधितवारः । अथ द्विरूपघनधारा- १५ अष्टौ चतुष्षष्टिः षोडशघनः वेसदछप्पणघनः पण्णट्ठिधनः वादालघनः, एवं पूर्वपूर्वस्य वर्गक्रमेण संख्यातवर्गस्थानानि गत्वा आवलेघनः । तस्मिन्नेकवारं वगिते प्रतरावलिवन्दम् । ततः असंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तथा वर्गशलाका नीचेके वर्गसे ऊपरके वर्गकी स्वस्थानमें एक अधिक होती हैं और परस्थानमें समान होती हैं। जैसे द्विरूपवर्गधाराके दूसरे वर्ग सोलहकी दो और तीसरे वर्ग दो सौ छप्पनकी तीन वर्गशलाका हैं। तथा द्विरूपघनधाराके तीसरे स्थान चार हजार २० छियानवेकी भी वर्गशलाका तीन ही हैं । द्विरूपवर्गधारा राशिकी जितनी वर्गशलाका हों, उतनी जगह दो-दो के अंक रखकर परस्परमें गुणा करनेसे अर्धछेदोंका प्रमाण आता है। तथा अर्धच्छेद प्रमाण दो-दो रखकर परस्परमें गुणा करनेसे राशि उत्पन्न होती है। जैसे सोलहकी वर्गशलाका दो हैं। सो दो जगह दो रखकर गुणा करनेसे चार आता है सो सोलहके चार अर्धच्छेद होते हैं । तथा चार अर्धच्छेद प्रमाण दो-दो रखकर परस्पर में गुणा करनेसे सोलह २५ राशि आती है । जितनी बार वर्ग करनेसे राशि उत्पन्न हो,उन्हें वर्गशलाका कहते हैं । अथवा द्विरूपवर्गधारामें अर्धच्छेदोंकी राशिको आधा-आधा करनेके बारोंको वर्गशलाका कहते हैं । और राशिको जितनी बार आधा-आधा किया जा सकता हो, उन्हें अर्धच्छेद कहते हैं। अब द्विरूपघनधाराको कहते हैं। दोका घन आठ होता है। वह इस धाराका पहला स्थान है । इसका वर्ग चौंसठ दूसरा स्थान है,यह चारका धन है । चौंसठका वर्ग चार हजार ३० छियानबे तीसरा स्थान है,यह सोलहका धन है। सोलहका घन दो सौ छप्पन उसका घन चौथा स्थान है । पण्णट्ठीका घन पाँचवाँ स्थान है। बादालका घन छठा स्थान है। इस प्रकार पहले-पहले स्थानका वर्ग करनेपर एक-एक स्थान होता है। ऐसे संख्यातवर्गस्थान जाने पर परीतासंख्यातका धन होता है । उससे संख्यात स्थान जानेपर आवलीका घन होता है। उसमें एक बार वर्ग करनेपर प्रतरावलिका घन होता है। उससे असंख्यात वर्गस्थान ३५ १. मदरंतर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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