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________________ ५ १० गो० जीवकाण्डे प्रक्षेपिसुत्तिरलनन्तानन्तोत्कृष्टमप्प महाराशि केवलज्ञानमेयमक्कु मदक्क संदृष्टि के ई पेयुषे एकाधिकमादोडे सर्व्वधारियक्कुमी सर्व्वधारियोळे समा विषम । कृति । कृति मातृक । घन । मातृक । अकृति । अकृति मातृक । अघन् । अघनमातृक । द्विरूपवर्ग। द्विरूपधन । द्विरूपघनाघन ! में बोश धारिग पुदुविवरोल द्विरूपवर्ग द्विरूपधन द्विरूपघनाघनमें ब कडे धारिले लिपयोगिगळे दु पेळवे मदे ते दोडे द्विरूपवर्गधारिये बुदु धेरडु । नात्कु । पदिना । मिनूर्नूरव्वत्तारु । मरुवत्ते॑दु सासिरद यिन्नूरमूवत्तारं । नानूरि ( रे ) प्पत्तोंभत्तकोटियु नाल्वतोंभत्तुलक्षमु मरुवत्ते, सासिरदयिनूर तोंभत्तारुं । वोंदु लक्षमु मेण्भत्तनाल्कुसासिरद नानूररुवत्तेळु कोटिकोटिगळं नाल्वत्तनात्कु लक्षमु मेळ सासिरद मूनरप्पत्तु कोटिगळं । तो भतैदुलक्षमुमय्यतारु सासिरदरुनूरपदिनारु । मितु पूर्व्वपूर्व्वकृतिगळागि संख्यातस्थानं गळनडेदो वडेयोल जघन्यपरीतासंख्यातराशिय वर्गशलाकाराशि पुट्टिदल्लदं मुंदे संख्यातस्थानंगळ्न डेदर्द्धच्छेदराशि पुट्टूदल्लिद मेले संख्यातवर्गस्थानं गळ्नड प्रथम मूलं पुट्टिदुदनंतरवग्गंस्थानं जघन्यपरिमिता - संख्यात राशि पुट्टिदुर्दाल्लदं मुंदे संख्यातवर्गस्थानंगलं नडदु प्रसिद्धमप्पावलि पुट्टिदुदनो २१६ संख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तस्यार्धच्छेदशलाकाराशिः । ततः संख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तस्य प्रथममूलं, तस्मिन्नेकवारं वर्गिते जघन्यपरिमितासंख्यातमुत्पद्यते । ततः संख्यातवर्गस्थानानि गत्वा आवलिरुत्पद्यते । १५ तस्यामेकवारं वगितायां प्रतरावलिरुत्पद्यते । ततः असंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा पल्यस्य वर्गशलाकाराशिः । ततः असंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तस्यार्धच्छेदशलाकाराशिः । ततः असंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा तस्य प्रथममूलम् । तस्मिन्नेकवारं वर्गिते पल्यमुत्पद्यते । ततः असंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा सूच्यङ्गुलमुत्पद्यते । अर्द्धच्छेद शलाका राशि उत्पन्न होती है। उससे आगे संख्यात वर्ग स्थान जानेपर जघन्य परीतासंख्यातका वर्गमूल उत्पन्न होता है। उसका एक बार वर्ग करनेपर जघन्य परीता२० संख्यात आता है । विशेषार्थ - दो के वर्गसे लगाकर जितनी बार वर्ग करनेपर विवक्षित राशि उत्पन्न होती है, उसकी उतनी ही वर्ग शलाका होती है । जैसे चार बार वर्ग करनेपर पण्णट्ठी राशि उत्पन्न होती है, तो उसकी चार वर्गशलाका है। और विवक्षित राशिका जितनी बार आधाआधा हो सकता है, उतने उस राशिके अर्द्धच्छेद होते हैं। जैसे सोलहका एक बार आधा २५ करनेपर आठ दूसरी बार आधा करनेपर चार, तीसरी बार आधा करनेपर दो और चौथी बार आधा करनेपर एक आता है। अतः सोलहकी अर्धच्छेद राशि चार है । और जिसका एक बार वर्ग करनेपर विवक्षित राशि आती है। उसे उस राशिका प्रथम वर्गमूल कहते हैं । जघन्य परीतासंख्यातसे संख्यातवर्ग स्थान जानेपर आवली उत्पन्न होती है । आवलीका वर्ग करनेपर प्रतरावलि उत्पन्न होती है। उससे असंख्यात वर्ग स्थान जानेपर ३० पल्यको वर्गशलाका राशि आती है। उससे असंख्यात वर्ग स्थान जानेपर पल्यकी अर्द्धच्छेद शलाका राशि उत्पन्न होती है। उससे असंख्यात वर्गस्थान जानेपर पल्यका प्रथम वर्गमूल आता है । उसका एक बार वर्ग करनेपर पल्य उत्पन्न होता है । उससे असंख्यात वर्गस्थान जानेपर सूच्यंगुल उत्पन्न होता है। उसका एक बार वर्ग करनेपर प्रतरांगुल उत्पन्न होता है । वर्गस्थान जाकर जगत श्रेणिका घनमूल उत्पन्न होता है। उससे ३५ असंख्यात वर्ग स्थान जाकर जघन्य परीतानन्तकी वर्गशलाका राशि उत्पन्न होती है। उससे १. म मेले । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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