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________________ १९९ कर्णाटवृत्ति जीक्तत्त्वप्रदीपिका मादियागि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तोत्कृष्टावगाहनस्थानपयंतमाद सावगाहनस्थानंगळ्गे प्रत्येकं शून्यद्वयविवक्षेयिदं तत्तत्स्थानगणानाश्रयदि होनाधिकभागशून्यविन्यासक्रममनादिनिधनार्षदोळ्पेळल्पद्रुदु। इंतु जीवसमासंगळ्गे देहावगाहनाधिकारं प्ररूपितमाप्तु ॥ दुत्कृष्टावगाहनस्थानपर्यन्तत्रयोदशस्थानानां षड्विंशतिशून्यानि लिखितव्यानि । तथा तत्पतेरधः पर्याप्तक- ५ . द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियजीवानां स्वस्वजघन्यावगाहनस्थानमादिं कृत्वा स्वस्वोत्कृष्टावगाहनस्थानपर्यन्तमेकादशाष्टाष्टदशस्थानानां यथासंख्यं द्वाविंशतिषोडशषोडशविंशतिसंख्यानि शून्यानि लिखितव्यानि । एवं मत्स्यरचनायां सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनस्थानमादिं कृत्वा संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तोत्कृष्टावगाहनस्थानपर्यन्तं सर्वावगाहनस्थानानां प्रत्येकं शून्यद्वयविवक्षया तत्स्थानगणनाश्रयो हीनाधिकभावः शून्यविन्यासक्रमः अनादिनिधनार्षे बाईस, सोलह, सोलह और बीस बिन्दी लिखना । सो पर्याप्त दोइन्द्रियके इक्यावनसे लेकर .. स्थान हैं। इसलिए सतरहवीं पंक्तिमें अप्रतिष्ठित प्रत्येककी जो छब्बीस बिन्दी लिखी थीं, उनके नीचे आदिकी पचासवें स्थानकी दो बिन्दीके नीचेको छोड़कर आगे बाईस बिन्दी लिखना। इसी तरह नीचे-नीचे आदिकी दो बिन्दीके नीचेको छोड़कर बावनवें, तेरपनवें, चौवनवें स्थानोंकी विन्दीसे लगाकर क्रमसे सोलह, सोलह, बीस बिन्दी लिखना। इस प्रकार मत्स्य रचनामें सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्यअवगाहनस्थानसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके उत्कृष्ट अवगाहन स्थान पर्यन्त सब अवगाहनस्थानों में से प्रत्येकके दो-दो शन्योंकी विवक्षा होनेसे उन स्थानोंकी गणनाके आश्रयसे हीन अधिक भावको लिये हुए शून्य स्थापनाका क्रम अनादि निधन आगममें कहा है। इसके अनुसार रचना करनेपर समस्त अवगाहनकी रचना मत्स्याकार होती है। विशेषार्थ-मत्स्य रचनाके उक्त विवरणका संक्षिप्तसार इस प्रकार है-सूक्ष्म .. अपर्याप्तक निगोदकी जघन्य अवगाहनासे उसके उत्कृष्ट अवगाहपर्यन्त गुणाकार सोलह हैं, पुनः एक अधिक है । इस प्रकार सतरह स्थानोंके प्रत्येक स्थानके दो शून्यके हिसाबसे चौंतीस शून्य सबसे ऊपरकी पंक्तिमें लिखना चाहिए। उसके नीचे सूक्ष्म अपर्याप्तक वायुकायिकके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त उन्नीस स्थानोंके अड़तीस शून्य लिखना चाहिए। इसी तरह सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्कायिकसे लेकर प्रतिष्ठित प्रत्येक पर्यन्त प्रत्येकके दो स्थान अधिक होनेसे प्रत्येक . पंक्तिमें चार शून्य अधिक होते हैं । इस तरह बयालीस, छियालीस, पचास, चौवन, अठावन, बासठ, छियासठ, सत्तर और चौहत्तर शून्य होते हैं। आगे भी अपने जघन्यसे अपने उत्कृष्ट पर्यन्त स्थान गणनाके द्वारा शून्य गणना जानना चाहिए । ऊपरकी पंक्तिके जघन्यसे नीचेकी पंक्तिका जघन्य दो शून्य छोड़कर होता है। सतरहवीं पंक्ति में एकमें ही बारह जीवोंके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त अपने-अपने योग्य शून्य लिखकर उसके नीचे दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंके अपने-अपने जघन्य से अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यन्त चार ३० पंक्तियों में अपनी-अपनी स्थान गणनासे शुन्योंकी गणना जानना । इस प्रकार रचनेपर सब अवगाहोंकी रचना मत्स्यके आकार होती है ॥११२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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