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गो० जीवकाण्डे
पर्यवसान दो बहुवारं संख्यातगुणितमादोडं विशुद्धमिथ्या दृष्टिगुणश्रेणि आयाम कालमंतर्मुहूर्त्त मात्रमेयक्कुमुर्दारदधिकभागदेकें दोडे जघन्यांतर्मुहूर्त मावलिप्रमाणं २ सर्व्वतः स्तोकं मेले समयोत्तरावलिगळेल्लं मध्यमांतर्मुहुत्त गळागुत्त पोगि समयोनमुहूर्त क्के उच्छ्वासंगळ ३ ७ ७ ३ अल्लियों दुच्छास के संख्यात निमेषंगळोदु निमेषक्के संख्यातावलिगळ २१ इंतागुत्त ५ विरल चरमांतर्मुहूत संख्यातावलियक्कु २११ मादियंते सुद्धे वडिदहिदे रूवसंजुदे ठाणा एंडु जघन्यावलियंतर्मुहूर्त दात्मप्रमाणमं तंदु २ ।१ । चरमांतर्मुहूर्तावलिय गुणकारदोळोंदु रूपं
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कळेदु २ १ १ वृद्धियिदं भागिसुवुदु वृद्धियों दे समयप्रमाणमप्युदरिदं भागिसि बंदं लब्धमनितेयक्कुं
संख्यातगुणः । एवं पश्चादानुपूर्व्या गन्तव्यं । पर्यवसाने बहुवारं संख्यातगुणितत्वेऽपि विशुद्धमिथ्यादृष्टिगुणश्रेण्यायाम कालोऽन्तर्मुहूर्त मात्र एव नाधिकः । कुतः ? जघन्योऽन्तर्मुहूर्तः आवलिप्रमाणः सर्वतः स्तोकः, १० उपरिसमयोत्तरावलिप्रभृतयः सर्वेऽपि मध्यमान्तर्मुहूर्ती भूत्वा चरमस्य समयोनमुहूर्तस्योच्छ्वासाः ३७७३ । एकोच्छ्वासस्य संख्यातावल्य: २ १ तदा चरमान्तर्मुहूर्तस्य संख्यातावल्योऽमूः २ १ १ आवलिमात्रान्तर्मुहूर्तस्य
आत्मप्रमाणमेकरूपं संस्थाप्य २१, चरमान्तर्मुहूर्ताव लेर्गुणकारस्योपर्यपनीय २११ वृद्धया एकसमयेन
आठ ८ होता है । चारसे गुणा करनेपर द्वितीय समय सम्बन्धी निषेकका प्रमाण बत्तीस ३२ होता है । सोलह से गुणा करनेपर तीसरे समय सम्बन्धी निषेकका प्रमाण एक सौ अट्ठाईस १५ १२८ होता है । चौसठसे गुणा करनेपर अन्तिम समय सम्बन्धी निषेकका प्रमाण पाँच सौ
बारह ५१२ होता है । इस तरह सब समयों में ८, ३२, १२८, ५१२ सब मिलकर ६८० छह सौ अस्सी द्रव्यकी निर्जरा होती है । इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्वकी उत्पत्तिरूप जो करण हैं,
गुणश्रेणी आयाममें उदाहरण देकर कथन किया, इसी तरह अन्यत्र भी जानना ।
इससे आगे जो ऊपर की स्थिति में दिया द्रव्य है वह विवक्षित मतिज्ञानावरणकी २० स्थिति जो पहले निषेक थे, उनमें क्रमसे देना चाहिए। उन निषेकोंके पूर्व द्रव्यमें इसको भी क्रमसे मिला देना चाहिए। सो नाना गुणहानिमें पहले-पहले निषेकमें आधा-आधा देना, तथा द्वितीयादि निषेकोंमें क्रमसे एक-एक चय हीन देना । इसमें त्रिकोण रचना होती है, उसका विशेष कथन आगे करेंगे । यहाँ प्रयोजन नहीं होने से नहीं किया ।
शंका- पहले कहा था कि वह गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य श्रावक आदि दस स्थानों में २५ असंख्यात गुणा- असंख्यात गुणा होता है ? सो कैसे होता है ?
समाधान - उस गुणश्रेणी द्रव्य लानेमें कारणभूत जो अपकर्षण भागहार है, उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होनेसे उस भागहार में असंख्यात गुणा हीनपना है। इसलिए उस गुणश्रेणी - द्रव्यके क्रमसे असंख्यात गुणापना सिद्ध है । अर्थात् श्रावकादि दस स्थानों में विशुद्धता अधिकअधिक है । इससे जो पूर्वस्थान में अपकर्षण भागहारका प्रमाण था, उसके असंख्यातवें भाग ३० अपकर्षण भागहारका प्रमाण आगे के स्थान में होता है । सो जितना भागहार कम होता जाता है, उतना ही लब्धराशिका प्रमाण बढ़ता जाता है । इससे गुणश्रेणिका द्रव्य जो लब्धराशिरूप है, वह भी क्रमसे असंख्यात गुणा होता है । किन्तु गुणश्रेणी आयामका काल उससे विपरीत है अर्थात् समुद्घात गत केवलिजिनसे लेकर विशुद्धमिध्यादृष्टि पर्यन्त श्रेणी आयामका काल क्रमसे संख्यात गुणा संख्यात गुणा है । वह इस प्रकार है - समुद्वात ३५ गत केवलिजिनका गुणश्रेणी आयामकाल अन्तर्मुहूर्त है । उनसे स्वस्थान केवलिजिनका
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