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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भागिसुत्तिरलु लब्ध ३९ । मिदु प्रथमसमयपरिणामप्रथमखंडप्रमाणमक्कुमिदी खंडमे सव्वजघन्यपरिणामपुंजमक्कमी खंडपरिणामव्यक्तिगळ्गेल मेल्लियुं सादृश्याभावमप्पुदरणिदंमोखंडपरिणामविशुद्धिळिदं होनविशुद्धिपरिणाममावसमयदनुकृष्टिखंडंगळोळमभावमप्पुरिदमेंदरिगु । ई प्रथमखंडदोळु आदिम्मि चये उड्ढे एंदिरिदं अनुकृष्टिचयमं कूडुत्तिरलु द्वितोयं प्रथमसमयपरिणामखंडमक्कं ४० मितु तृतीयादिखंडंगळं तिर्यक्चदिनभ्यधिकंगळु स्वचरमखंडपर्यंतं ४२ ५ तिर्यकागि स्थापयितव्यं गळक्कुमल्लि बळिक्कं द्वितीयसमयपरिणामंगळ प्रथमखंडमदु प्रथमसमयखंडमं नोड ३९ ल्लि 'शेषाधिकमक्कु ४० मिदुवं द्वितीयसमयसमस्तपरिणामपुंजदो १६६ ळनुकृष्टिचयधनमनारं हीनं माडिशेषमनिद १६० ननुकृष्टिपददिदं ४ भागिसि बंद लब्धमा नाल्वत्तक्कुत्पत्ति सिद्धमधुरिंद मल्लि बळिक्कमा द्वितीयसमयद द्वितीयादिखंडंगळं विशेषाधिकंगळु ४१।४२।४३ । इल्लि द्वितीयसमयप्रथमखडम ४० प्रथमसमयद्वितीयखंडदोडने समानमक्कू मितु १० सर्वजघन्यखण्डं अन्येषां खण्डानां परिणामसंख्याविशुद्धिभ्यां ततोऽधिकत्वसंभवात् । तत्प्रथमखण्डे चैकस्मिन्ननुकृष्टिचये युते तद्वितीयखण्डं भवति ।४०। एवं तृतीयादीनि चरमखण्डपर्यन्तानि तिर्यगेकैकचयाधिकानि स्थाप्यानि ४१, ४२। ततः परं द्वितोयसमयप्रथमखण्डं प्रथमसमयप्रथमखण्डात् ३९ एकविशेषाधिक भवति ४० । द्वितीयसमयसमस्तपरिणामेषु १६६ अनुकष्टिचयधनेन ६ न्यूनयित्वा १६० अनुकृष्टिपदेन करनेका नाम अनुकृष्टि है । सो ऊर्ध्वगच्छके संख्यातवें भाग अनुकृष्टिका गच्छ है। सो अंक १५ संदृष्टिकी अपेक्षा ऊर्ध्वगच्छका प्रमाण सोलह १६ है। उसमें संख्यातके प्रमाण चारसे भाग देनेपर चार अनुकृष्टिके गच्छका प्रमाण है। अर्थात् अनुकृष्टि के खण्डोंका प्रमाण चार जानना । तथा ऊर्ध्व रचनाके चयमें अनुकृष्टिके गच्छका भाग देनेपर अनुकृष्टिका चय आता है । सो ऊर्ध्वचय चारमें अनुकृष्टिके गच्छ चारसे भाग देनेपर एक आया। वही अनुकृष्टिका चय है अर्थात् प्रत्येक खण्डमें होनेवाली वृद्धिका प्रमाण एक है। प्रथम समय सम्बन्धी समस्त २० परिणाम १६२ है। वही यहाँ प्रथम समय सम्बन्धी अनुकृष्टि रचनाका सर्वधन है। 'व्येकपदार्धनचयगुणो गच्छ उत्तरधनम्', इस सूत्रके अनुसार गच्छ चारमें से एक कम करके उसका आधा करके तथा उस आधेको चय और गच्छसे गुणा करनेपर (३४१४४) अनुकृष्टिका उत्तर धन ६ होता है । इस उत्तर धन छह को सर्वधन १६२ में से घटानेपर शेष १५६ एकसौ छप्पन रहे। उसमें अनुकृष्टिके गच्छ चारका भाग देनेपर ३९ आये। वही प्रथम समय सम्बन्धी १५ परिमाणोंके प्रथम खण्डका प्रमाण है । यही सबसे जघन्य खण्ड है,क्योंकि इस खण्डसे अन्य सब खण्डोंके परिणाम संख्या और विशुद्धि में अधिक होते हैं । उस प्रथम खण्डमें अनुकृष्टिका चय एक जोड़नेपर उसीके दूसरे खण्डका प्रमाण चालीस ४० होता है। इस तरह तीसरेको आदि लेकर अन्तिम खण्ड पर्यन्त तिर्यक् रूपसे एक-एक चय अधिक करके स्थापित करना चाहिए ४१।४२। अर्थात् तीसरे खण्डके परिणामोंकी संख्या ४१ और अन्तिमकी ४२ है। ३. ऊर्ध्व रचनामें जहाँ प्रथम समय सम्बन्धी परिणाम स्थापित किये,उनके आगे-आगे बराबरमें इनकी स्थापना करनी चाहिए। ये खण्ड परिणाम एक समयमें वर्तमान अनेक जीवोंके एक साथ पाये जाते हैं,इसलिए इनको बराबर में स्थापन किया है। उससे ऊपर द्वितीय समयका प्रथम खण्ड प्रथम समयके प्रथम खण्ड ३९ से एक विशेष अधिक होता है। इससे उसका प्रमाण चालीस ४० है । क्योंकि द्वितीय समयके समस्त परिणाम १६६ में अनुकृष्टिका चयधन । १. म द्विशेषां । २. म ४० नाल्वत्तु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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