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________________ ८२ गो० जीवकाण्डे नोडलंते द्वितीयादिसमयंगळोळु तदधःप्रवृत्तकरणकालचरमसमयपथ्यंतं मेले-मेळे सदृशवृद्धिवद्धितंगळागिनडेववदेंतेंदोडे केळि पेन्द। इल्लियव्युत्पन्नव्युत्पादनार्थमागि मोदलोळंकसंदृष्टिायदमधप्रवृत्तकरणन्यास तोरिसल्प सन्ति तेभ्यो द्वितीयादिसमयेषु उपर्युपरि चरमसमयपर्यन्तं सदृशवृद्धया वर्धिता: सन्ति ते च तावदङ्कसंदृष्टया ५ प्रदर्श्यन्ते-तत्र परिणामाः द्वासप्तत्युत्तरत्रिसहस्रो ३०७२ । अधःप्रवृत्तकरणकाल: षोडशसमयाः १६ । प्रतिसमय अन्तिम समय पर्यन्त समान वृद्धिको लिये हुए वर्धमान परिणाम हैं। अर्थात् प्रथम समय सम्बन्धी परिणामोंसे द्वितीय समय सम्बन्धी परिणाम जितनी वृद्धिको लिये हुए हैं, द्वितीय समय सम्बन्धी परिणामोंसे तृतीय समय सम्बन्धी परिणाम भी उतनी ही वृद्धिको लिये हुए हैं। इसी तरह अन्तिम समय पर्यन्त जानना । यहाँ श्रेणि व्यवहार गणित सम्भव है । अतः १० यहाँ श्रेणि व्यवहार गणितके द्वारा वर्णन करते हैं। प्रथम संज्ञाओंको कहते हैं। विवक्षित सर्वस्थान सम्बन्धी सर्व द्रव्यको जोड़ने पर जो प्रमाण हो,उसे सर्वधन या पदधन कहते हैं। स्थानोंके प्रमाणको पद कहते हैं या गच्छ कहते हैं। प्रत्येक स्थानमें जितनी वृद्धि होती है, उसे चय या उत्तर या विशेष कहते हैं। आदि स्थानमें जो प्रमाण होता है, उसे मुख कहते हैं अथवा आदि या प्रथम कहते हैं। अन्तिम स्थानमें जो द्रव्यका प्रमाण होता है, उसे अन्तधन १५ या भूमि कहते हैं। सब स्थानोंके बीचके स्थानमें जो द्रव्यका प्रमाण होता है,उसको मध्यधन कहते हैं। जहाँ स्थानोंका प्रमाण सम होता है, वहाँ बीचके दो स्थानोंके द्रव्यको जोड़कर आधा करनेपर जो प्रमाण होता है, उसे मध्य धन कहते हैं। जितना मुखका प्रमाण हो उतना-उतना सब स्थानों का ग्रहण करके जोड़ने पर जो प्रमाण हो,उसे आदिधन कहते हैं। सब स्थानोंमें जो-जो चय बढ़े, उन सब चयोंको जोड़नेपर जो प्रमाण होता है, उसे उत्तरधन २० या चयधन कहते हैं। इस प्रकार आदिधन और उत्तरधनको मिलाने पर सर्वधन होता है । अब इनका प्रमाण जाननेके लिए करणसूत्र कहते हैं-'मुख आदि स्थान और भूमि अन्तस्थानको जोड़कर उसका आधा करके उसे गच्छसे गुणा करनेपर पदधन अर्थान् सर्वधन होता है। और आदिधनको अन्तधन में से घटानेपर जो शेष रहे. उसको चयसे भाग देनेपर जो आवे, उसमें एक मिलानेपर स्थानोंका प्रमाणरूप पद वा गच्छका प्रमाण आता है। तथा २५ पद या गच्छ के वर्गका भाग सर्वधनमें देनेपर जो प्रमाण आये उसे संख्यातसे भाग देनेपर जो प्रमाण आता है, उसे चय जानना । सर्वत्र सर्वधनको गच्छसे भाग देनेपर जो प्रमाण रहे, उसमें सेमिखको घटाकर जो शेष रहे,उसमें से एक घटाकर गच्छके आधे प्रमाणसे भाग देनेपर, चयका प्रमाण होता है' अथवा 'आदिधनोनं गणितं पदोनपदकृतिदलेन संभाजितः प्रचयः ।' इस वचनके अनुसार सब स्थानसम्बन्धी आदि धनको सर्वधनमें-से घटाकर शेपकोगच्छके प्रमाणके वर्गमें-से गच्छका प्रमाण घटाकर जो शेष रहे ,उसके आधेका भाग देनेपर चयका प्रमाण आता है । तथा उत्तर धनको सर्वधनमें-से घटाने पर जो शेष रहे, उसको गच्छसे भाग देने पर मुख का प्रमाण आता है। तथा 'व्येकं पदं चयाभ्यस्तं तदादिसहितं धनं' इस सूत्रके अनुसार एक कम गच्छको चयसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उसमें मुखका प्रमाण जोड़ने पर अन्तधन होता है । मुख और अन्तधनको मिलाकर उसका आधा करने पर ३५ मध्यधन होता है। पदसे मुखको गुणा करने पर आदिधन होता है। यह श्रेणिव्यवहार गणितका कुछ स्वरूप दिया है । ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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