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________________ गो० जीवकाण्डे मितियुमळिद मानमायालोभंगळगं नाल्कुं नाल्काळापंगळागुत्तमिरल नाल्कुं कषायंगळ्गं पदिनारुप्रमादालापंगळप्पुवु। मत्त योदु स्पर्शनेंद्रियक्कं पदिनारु प्रमादालापंगळागुत्तमिरलु मुळिद रसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रंगळ्नाल्कुरोळुमो दो दक्कं पदिनारु पदिनारु प्रमादालापंगळागुत्तमिरलुमय्दुमिद्रियंगळ्गम भत्त 'प्रमादालापंगळक्कुमदेल्लमनरिदु नडसुवुदु । ममिती प्रस्तारक्रमं सर्वत्र चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशोलादिप्रस्तारंगळोळं कर्तव्यमक्कं । अनंतरमक्षपरिवर्तनक्रमप्रदर्शनार्थमागि पेळदपरु । तदियक्खो अंतगदो आदिगदे संकमेदि विदियक्खो । दोण्णिवि गंतूणंतं आदिगदे संकमेदि पढमक्खो ॥३९॥ (३९ तमगाथा न विद्यते मूलप्रतो) स्नेहवान् इति तृतीयप्रमादालापः ।३। अवनिपालकथालापी क्रोधी स्पर्शनेन्द्रियदशंगत: निद्राल: स्नेहवान चतुर्थप्रमादालापः ।४ एवं शेषमानमायालोभानामपि चत्वारश्चत्वारो भूत्वा चतुर्गा कषायाणां एकस्पर्शनेन्द्रियप्रमादे षोडशप्रमादालापा भवन्ति । तथा शेषरसनघ्राणचक्षःश्रोत्राणां चतुर्णामपि एककस्य षोडश षोडश भूत्वा पञ्चानामिन्द्रियाणामशीतिप्रमादालापा भवन्ति । तान् सर्वान् ज्ञात्वा वर्तितव्यं यतिभिः । अयं क्रमः सर्वत्र चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशोलादीनामपि प्रस्तारेऽपि कर्तव्यः ॥३८॥ अथ प्रथमप्रस्तारापेक्षया अक्षपरिवर्तनक्रममाह तृतीयप्रमादाक्षः आलापक्रमेण स्वपर्यन्तं गत्वा पुनरावृत्य स्वप्रथमस्थानं युगपदेवागच्छति तदा द्वितीयप्रमादाक्षः स्वद्वितीयस्थानं गच्छति । पुनः तृतीयप्रमादाक्षः क्रमेण स्वपर्यन्तं गत्वा व्यावृत्य युगपदेव स्वप्रथमस्थानमागच्छति तदा द्वितीयप्रमादाक्षः स्वतृतीयस्थानं गच्छति । एवं द्वितीयप्रमादाक्षो यदा एकवारं स्वपर्यन्तं १० १५ २० स्नेहवान् , यह तीसरा प्रमाद आलाप है ।३। अवनिपालकथालापी, क्रोधी, स्पर्शन इन्द्रियके आधीन, निद्रालु, स्नेहवान् , यह चतुर्थ प्रमाद आलाप है।४। इसी प्रकार शेष मान-माया-लोभके भी चार-चार होकर चारों कषायोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय सम्बन्धी प्रमादमें सोलह प्रमाद आलाप होते हैं । तथा शेष रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र चारों भी इन्द्रियों में एक-एकके सोलहसोलह होकर पाँचों इन्द्रियोंके अस्सी आलाप होते हैं। उन सबको जानकर व्रतियोंको प्रवृत्ति करना योग्य है। यह क्रम सर्वत्र चौरासी लाख गुण, अठारह हजार शील आदिके भी । प्रस्तारमें करना चाहिए ॥३८॥ आगे प्रथम प्रस्तारकी अपेक्षा अक्षपरिवर्तन कहते हैंतीसरा प्रमाद अक्ष इन्द्रिय आलापके क्रमसे अपने अन्त तक जाकर पुनः लौटकर थम स्थानको एक साथ प्राप्त होता है तब दसरा प्रमाद अक्ष कषाय अपने दूसरे स्थानको प्राप्त होता है अर्थात् क्रोधकषायका स्थान मानकषाय लेता है। पुनः तीसरा प्रमाद अक्ष इन्द्रिय क्रमसे अपने अन्त पर्यन्त जाकर लौटकर एक साथ ही अपने प्रथम स्थानपर आती है,तब दूसरा प्रमाद अक्ष कषाय अपने तीसरे स्थानको प्राप्त होता है। अर्थात् मायाकषाय मानकषायका स्थान ले लेता है। इस तरह दूसरा प्रमाद अक्ष कषाय जब एक बार अपने अन्त तक जाता है,तब तीसरा प्रमाद अक्ष इन्द्रिय भी क्रमसे संचार करता हुआ अपने अन्त तक जाता है। इस प्रकार ये दोनों ही अर्थात् इन्द्रिय और कषाय पुनः लौटकर अपने-अपने प्रथम स्थानको एक साथ प्राप्त होते हैं,तब प्रथम प्रमाद अक्ष विकथा अपने १. म गुत्तिरल । ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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