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प्रधान सम्पादकीय
आचार्य भट्टाकलंक देव विरचित तत्त्वार्थवार्तिक का प्रथम संस्करण दो जिल्दों में भारतीय ज्ञानपीठ से १६५३-५७ में प्रकाशित हुआ था । स्व. पं. महेन्द्रकुमार जैन ने इसका सम्पादन किया था ।
आचार्य भट्ट अकलंक एक बहु प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान थे । उनके सम्बन्ध में हमने न्यायकूमुदचन्द्र के प्रथम भाग की प्रस्तावना में विस्तार से प्रकाश डाला है । स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन के पश्चात् उन्हीं की प्रभावक कृतियों ने जैन वाङ्मय को समृद्ध बनाया था। उन्हें जैन न्याय के सर्जक क जाने का सौभाग्य प्राप्त है । उनके नाम के आधार पर जैन न्याय को अकलंक न्याय भी कहा गया है ।
प्रभाचन्द्र के गद्य कथाकोश, ब्रह्मचारी नेमिदत्त के कथाकोश और कन्नड़ भाषा के 'राजाबलिकथे' ग्रन्थों में अकलंक की कथाएँ मिलती हैं । 'कथाकोश' के अनुसार, अकलंक की जन्मभूमि मान्यखेट थी और वहां के राजा प्रभुतुंग के मन्त्री पुरुषोत्तम के वे पुत्र थे । अकलंक के तत्त्वार्थवार्तिक के प्रथम अध्याय के अन्त में एक श्लोक पाया जाता है । उसमें उन्हें लघुहव्व नृपति का पुत्र कहा है । इसमें कोई संदेह नहीं कि वे दक्षिण भारत के निवासी थे । कथाओं में दिये गये नगरों के नामों से भी इसका समर्थन होता है ।
'राजाबलिकथे' आदि के आधार पर राईस सा. ने अकलंक देव का जीवन वृत्तान्त लिखा था | 1 उन्होंने लिखा है कि जिस समय कांची में बौद्धों ने जैन धर्म की प्रगति को रोक दिया था उस समय अकलंक निकलंक ने गुप्तरीति से बौद्धगुरु से पढ़ना शुरू किया। गुरु को उन पर सन्देह हो गया । और उन्हें मारने निश्चय किया तो दोनों भाग निकले। निकलंक मारे गये और अकलंक बच गये । उन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्य पद सुशोभित किया । उस समय अनेक मतों के आचार्य बौद्धों से वाद-विवाद में हारकर दुःखी हो रहे थे । उनमें से वीरशैव सम्प्रदाय के लोग आचार्य अकलंक देव के पास आये और उनसे सब हाल कहा। इस पर अकलंक देव ने बौद्धों पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया ।
शास्त्रार्थ में हारने पर बौद्ध बहुत क्रुद्ध हुए । उन्होंने अपने राजा हिमशीतल को इस बात के लिए उत्तेजित किया कि अकलक को इस शर्त के साथ उनसे वाद करने को बुलाया जाये कि जो कोई वाद में हारे उसके सम्प्रदाय के सारे लोग कोल्हू में पिलवा दिये जायें । उस वाद में जैनों की विजय हुई | राजा ने बौद्धों को कोल्हू में पिलवा देने की आज्ञा दे दी, परन्तु अकलंक की प्रार्थना पर वे सब बोद्ध सीलोन के एक नगर कंडी को निर्वासित कर दिये गये
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हिमशीतल की सभा में अकलंक के शास्त्रार्थ और बौद्धों की देवी तारा की पराजय का उल्लेख श्रवणबेलगोला की मल्लिषेण प्रशस्ति में भी है । उसमें राजा साहसतुरंग की सभा में अकलंक के जाने और वहाँ आत्मश्लाघा करने का भी वर्णन है । प्रशास्ति के श्लोक इस प्रकार हैं
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तारा येन विनिर्जिता घटकुटी गूढावतारा समं बौद्धयों धृत- पीठ-पीडित कुदृग्देवार्थ-सेवांजलिः । प्रायश्चित्तमिवांघ्रिवारिज रजः स्नानं च यस्याचरदोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलङ्कः कृती ॥
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१ जैन हितंषी, भाग ११, अंक ७-८ में भट्टाकलंक नामक लेख ।
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