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________________ ४२८ तत्त्वार्थचार्तिक [४१४२ २५ निरंश वस्तुमें गुणभेदसे अंशकल्पना करना विकलादेश है। स्वरूपसे अविभागी अखंड सत्ताक वस्तुमें विविध गुणोंकी अपेक्षा अंश कल्पना करना अर्थात् अनेकत्व और एकत्वकी व्यवस्थाके लिए मूलतः नरसिंहमें सिंहत्वकी तरह समुदायात्मक वस्तुस्तरूपको स्वीकार करके ही काल आदिकी दृष्टिसे परस्पर विभिन्न अंशोंकी कल्पना करना विकलादेश है। केवल सिंहमें सिंहत्वकी तरह एकमें एकांशकी कल्पना विकलादेश नहीं हैं। जैसे दाडिम कर्पूर आदिसे बने हुए शर्बतमें विलक्षण रसकी अनुभूति और स्वीकृतिके बाद अपनी पहचान शक्तिके अनुसार 'इस शर्बतमें लायची भी है, कर्पूरभी है' इत्यादि विवेचन किया जाता है उसी तरह अनेकान्तात्मक एक वस्तुकी स्वीकृतिके बाद हेतुविशेषसे किसी विवक्षित अंशका निश्चय करना विकलादेश है। अखंड भी वस्तुमें गुणोंसे भेद होता है जैसे 'गतवर्ष आप पटु थे, इस वर्ष पटुतर हैं' इस प्रयोगमें अवस्थाभेदसे तदभिन्न द्रव्यमें भेद व्यवहार होता है। गुणभेदसे गुणिभेदका होना स्वाभाविक ही है। २६ विकलादेशमें भी सप्तभंगी होती है। गुणभेदक अंशोंमें क्रम, योगपद्य तथा क्रम-योगपद्य दोनोंसे विवक्षाके वश विकलादेश होते हैं। प्रथम और द्वितीय भंगमें स्वतंत्र क्रम, तीसरेमें यौगपद्य, चौथेमें संयुक्त क्रम, पांचवें और छठे भंगमें स्वतंत्र क्रमके साथ यौगपद्य तथा सातवें भंगमें संयुक्त क्रम और योगपद्य हैं। सर्वसामान्य आदि किसी एक द्रव्यार्थ-दृष्टिसे 'स्यादस्त्येव आत्मा' यह पहिला विकलादेश है। इस भंगमें अन्य धर्म यद्यपि वस्तुमें विद्यमान हैं तो भी कालादिकी अपेक्षा भेदविवक्षा होनेसे शब्दवाच्यत्वेन स्वीकृत नहीं हैं अतः न उनका विधान ही है और न प्रतिषेध ही। इसी तरह अन्य भंगोंमें भी स्वविवक्षित धर्मकी प्रधानता होती है और अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता, न तो उनका विधान ही होता है और न उनका प्रतिषेध ही । प्रश्न--जब आप 'अस्त्येव' इस तरह विशेषण-विशेष्यके नियमनको एवकार देते हो तब अर्थात् ही इतरकी निवृत्ति हो जाती है ? उदासीनता कहाँ रही ? उत्तर--इसीलिए शेष धर्मोंके सद्भावको द्योतन करने के लिए 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । एवकारसे जब इतरनिवृत्तिका प्रसंग प्रस्तुत होता है तो सकल लोप न हो जाय इसलिए 'स्यात्' शब्द विवक्षित धर्मके साथ ही साथ अन्यधमौके सद्भावकी सूचना दे देता है। इस तरह अपुनरुक्त रूपसे अधिकसे अधिक सात प्रकारके वचन हो सकते है । यह सब द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों नयोंकी विवक्षासे होता है। ये नय संग्रह और व्यवहार रूप होते हैं शब्द नय और अर्थनय रूपसे भी इनके विभाग हैं। संग्रह व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय है तथा शब्द समभिरूढ़ और एवं भूत शब्दनय है। संग्रहनय सत्ताको विषय करता है, वह समस्त वस्तुतत्त्वका सत्तामें अन्तर्भाव करके अभेद रूपसे संग्रह करता है। व्यवहारनय असत्त्वको विषय करता है क्योंकि वह उन परस्पर भिन्न सत्त्वोंको ग्रहण करता है जिनमें एक दूसरेका असत्त्व अन्तर्भूत है। ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणवर्ती पर्यायको जानता है । इसकी दृष्टिमें अतीत और अनागत चूंकि विनष्ट और अनुत्पन्न है, अतः उनसे व्यवहार नहीं हो सकता। ये तीनों अर्थनय मिलकर तथा एकाकी रहकर सात प्रकारके भंगोंको उत्पन्न करते हैं । पहिला संग्रह दूसरा व्यवहार, तीसरा अविभक्त (युगपद् विवक्षित)संग्रह व्यवहार, चौथा समुच्चित (क्रम विवक्षित समुदाय) संग्रह व्यवहार, पांचवां संग्रह और अविभवत संग्रह व्यवहार, छठवां व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार तथा सातवां समुदित संग्रह व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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