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________________ ४१२ तस्वार्थवार्तिक [AR २-६ सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके पीतलेश्या होती है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गके देवोंमें पीत और पम लेश्या है। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ट इन चार स्वर्गों में पद्मलेश्या है तथा शुक्र महाशुक्र शतार और सहस्रार स्वर्गके देवोंमें पद्य और शुक्ल लेश्या हैं । आनतादिकके देवोंमें शुक्ल लेश्या हैं। तथा अनुतर विमानोंमें परमशुक्ल लेश्या है। ७-८ यद्यपि सूत्र में शुद्ध और मिश्र दो प्रकारकी लेश्याओंका निर्देश स्पष्ट नहीं किया गया है फिर भी जिनका मिश्रणे है उन एक एकका ग्रहण होनेसे मिश्रका निर्देश समझ लेना चाहिए। यद्यपि सूत्रमें द्वि त्रि और शेष ग्रहण करनेसे पीत पद्य और शुक्ल इन तीनों लेश्याओंका पृथक् पृथक् अन्वय हो जाता है फिर भी इच्छानुसार सम्बन्ध इस प्रकार कर लेना चाहिए-दो कल्प युगलोंमें पीत लेश्या है, सानत्कुमार और माहेन्द्र में पद्म लेश्याकी विवक्षा नहीं है । ब्रह्मलोक आदि तीन युगलोंमें पद्म लेश्या है, शुक्र महाशुक्रमें शुक्ललेश्याकी विवक्षा नहीं है। शतार आदि शेषमें शुक्ल लेश्या है, पद्मलेश्याकी विवक्षा नहीं है । इस तरह आगमविरोध नहीं होता।। ९ अथवा 'पीतमिश्रपद्ममिश्रशुक्ललेश्या द्विद्विश्चतुश्चतुः शेषेषु' यह स्पष्टार्थक सूत्रपाठ मान लेनेसे कोई दोष नहीं रहता। १० निर्देश आदि सोलह अनुयोगों द्वारा लेश्याका विशेष विवेचन इस प्रकार है १ निर्देश-कृष्ण नील कपोत तेज पद्म और शुक्ल । वर्ण-भोंरा मयूरकण्ठ कबूतर सुवर्ण पद्म और शंखके समान क्रमशः लेश्याओंका वर्ण है । अवान्तर तारतम्य प्रत्येक लेश्यामें अनन्त प्रकारका है । परिणाम-असंख्यात लोक प्रदेश प्रमाण कषायोंके उदयस्थान होते हैं। उनमें नीचेसे उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य अंशोंमें संक्लेश हानिसे क्रमश: कृष्ण नील और कपोत अशुभ लेश्या रूप परिणमन होता है। इसी तरह जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अंशोंमें विशुद्धिकी वृद्धिसे तेज पद्म और शुक्ल तीन शुभ लेश्या रूप परिणाम होते हैं। इसी तरह ऊपरसे उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य अंशोंमें विशुद्धि हानिसे शुक्ल पद्म और पीत तथा जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट अंशोंमें संक्लेशवृद्धिसे कपोत नील और कृष्णलेश्या रूप परिणमन होता है। प्रत्येक लेश्याके असंख्यात लोक प्रमाण अवान्तर परिणाम होते हैं। संक्रमण-यदि कृष्णलेश्यावाला अधिक संक्लेश करता है तो वह कृष्णलेश्याके ही अवान्तर उत्कृष्ट आदि भेदोंमें बना रहता है । इस तरह वृद्धि में एक ही स्वस्थान संक्रमण होता है । हानिमें स्वस्थान तथा परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं। शुक्ल लेश्यामें विशुद्धि वृद्धिमें एक स्वस्थान संक्रमण ही होगा तथा विशुद्धि हानिमें स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं । मध्यकी लेश्याओंमें संक्लेश और विशुद्धिकी हानि-वृद्धिसे स्वस्थान और परस्थान दोनों संक्रमण होते हैं । अनन्त भागवृद्धि आदि इनमें होती रहती है। ___ लेश्याकर्म-जामुन भक्षणको दृष्टान्त मानकर-पीढ़से वृक्षको काटना, शाखाएं काटना, छोटी डालियां काटना, गुच्छे तोड़ना, पके फल तोड़ना तमा स्वयं गिरे हुए पके फल खाना इस प्रकार कृष्ण बादि लेश्याओंके आचरण समझना चाहिए। लक्षण-दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीव वैर, अति कोष, दुर्मुख, निर्दयता, क्लेश, ताप, हिंसा, असन्तोष आदि परम तामस भाव कृष्णलेश्याके लक्षण हैं। आलस्य, मूर्खता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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