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________________ ४०६ तत्त्वार्थवार्तिक [४११३ लाख विमानोंके स्वामी हैं। चन्द्रविमान निर्मल मृणालवर्णके समान धवल प्रभावाले हैं। ये ५६.० योजन लंबे २०१० योजन चौड़े और हजार देवों द्वारा वहन किए जाते हैं । पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमशः सिंह हाथी घोड़ा और वृषभके रूपको धारण किए हुए चार चार हजार देव चन्द्रविमानोंमें जुते रहते हैं। इनके चन्द्रप्रभा सुसीमा अचिमालिनी और प्रभंकरा ये चार अग्रमहिषी चार चार हजार देवियोंकी विक्रिया करने में समर्थ हैं । ये असंख्यात लाख विमानोंके अधिपति हैं। राहुके विमान अंजनमणिके समान काले, एक योजन लम्बे चौड़े और २५० धनुष विस्तारवाले हैं । नव मल्लिका कुसुमकी तरह रजतमय शुक्र विमान हैं । ये एक गव्यूत लम्बे चौड़े हैं। बृहस्पतिके विमान अंकमणिमय और सुवर्ण तथा मोतीकी समान कान्तिवाले हैं। कुछ कम गव्यूत प्रमाण लम्बे चौड़े हैं। बुधके विमान कनकमय और पीले रंगके हैं । तपे हुए सोनेके समान लालरंगके शनैश्चरके विमान हैं । लोहित मणिमय तप्त सुवर्णकी कान्तिवाले मंगलके विमान हैं। बुध आदिके विमान आधे गव्युत लम्बे चौड़े हैं। शुक्र आदिके विमान राहुके विमान बराबर लम्बे चौड़े हैं। राहु आदिके विमानोंको चार-चार हजार देव वहन करते हैं। नक्षत्र विमानोंको भी चार हजार देव ही ढोते हैं। तारा विमानोंको दो हजार देव वहन करते हैं । राहु आदिके विमानवाहक देव चन्द्रविमानवाहक देवोंकी तरह रूपविक्रिया करते हैं। नक्षत्र विमानों का उत्कृष्ट विस्तार एक कोश है । तारा विमानोंका जघन्य विस्तार कोश, मध्यम कुछ अधिक : कोश और उत्कृष्ट ३ गव्यूत है। ज्योतिषी विमानोंका सर्वजघन्य विस्तार ५०० धनुष है। ज्योतिषियोंके इन्द्र सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये असंख्यात हैं। मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥ ज्योतिषी देव मनुष्यलोकमें मेरुकी प्रदक्षिणा करके नित्य भ्रमण करते हैं। १ अन्य प्रकारकी गतिकी निवृत्तिके लिए 'मेरुप्रदक्षिणा' शब्द दिया है। ६२-३ यद्यपि गति प्रतिक्षण भिन्न होनेके कारण अनित्य है फिर भी सतत गतिकी सूचनाके लिए 'नित्य' पद दिया है । तात्पर्य यह कि वे सदा चलते हैं कभी रुकते नहीं। गति भी द्रव्यदृष्टिसे नित्य होती है क्योंकि सभी पदार्थ द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्यायदृष्टिसे अनित्य इस तरह अनेकान्तरूप हैं। ४ 'नृलोक' ग्रहण सूचित करता है कि ढाई द्वीपके ज्योतिषी नित्यगतिवाले हैं बाहरके नहीं। गतिपरिणत आभियोग्य जातिके देवों द्वारा इनके विमान ढोए जाते हैं अतः वे नित्यगतिक हैं। इन देवोंके ऐसे ही कर्मका उदय है जिससे इन्हें विमानोंको वहन करके ही अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। ये मेरु पर्वतसे ११ सौ योजन दूर घूमते हैं। जम्बूद्वीपमें २ सूर्य, २ चन्द्र, ५६ नक्षत्र, १७६ ग्रह, एक कोडाकोड़ी लाख ३३ कोडाकोडी हजार ९ कोडाकाडी सैकड़ा ५० कोडाकोड़ी तारागण हैं। लवण समुद्र में ४ सूर्य, ४ चन्द्र, ११२ नक्षत्र, ३५२ ग्रह, २ कोडाकोडी लाख ६७ कोडाकोड़ी हजार ९ सो कोडाकोड़ी तारा है। धातकीखण्डम १२ सूर्य, १२ चन्द्र, ३३६ नक्षत्र, १०५६ ग्रह, आठ लाख कोड़ाकोड़ी ३७ सौ कोड़ाकोड़ी तारा हैं । कालोदधिमें ४२ सूर्य, ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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