SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय नरक पृथ्वियाँरत्नशर्कराबालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाश प्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः॥१॥ रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियाँ नीचे-नीचे हैं और घनोदधिवात, घनवात और तनुवात इन तीन वातवलयोंसे वेष्टित हैं । इन वातवलयोंका आधार आकाश है। १-४ रत्न आदि शब्दोंका द्वन्द्व समास करके प्रत्येकमें प्रभा शब्द जोड़ देना चाहिए, रत्नप्रभा शर्कराप्रभा आदि । जैसे यष्टि सहित देवदत्तको यष्टि कहते हैं उसी तरह चित्र वज़ वैडूर्य लोहित आदि सोलह रत्नोंकी प्रभासे सहित होनेके कारण रत्नप्रभा संज्ञा की गई है। इसी तरह शर्कराप्रभा आदि समझना चाहिए। तमकी भी अपनी एक आभा होती है। केवल दीप्तिका नाम ही प्रभा नहीं है किन्तु द्रव्योंका जो अपना विशेष विशेष सलोनापन होता है, उसीसे कहा जाता है कि यह स्निग्ध कृष्ण प्रभावाला है यह रूक्ष कृष्ण प्रभावाला। ५-६ जैसे मखमली कीड़ेकी 'इन्द्रगोप'संज्ञा रूढ़ है, इसमें व्युत्पत्ति अपेक्षित नहीं है उसी तरह तमःप्रभा आदि संज्ञाएँ अनादि पारिणामिकी रूढ़ समझनी चाहिए। यद्यपि ये रूढ शब्द हैं फिर भी ये अपने प्रतिनियत अर्थोंको कहते हैं। ७-८ जिस प्रकार स्वर्गपटल भूमिका आधार लिए बिना ही ऊपर ऊपर हैं उस प्रकार नरक नहीं है किन्तु भूमियोंमें है। इन भूमियोंका आलम्बन घनोदधिवातवलय है, घनोदधिवातवलय घनवातवलयसे वेष्टित है और धनवातवलय तनुवातवलयसे । तनुवातवलयका आधार आकाश है और आकाश स्वात्माधार है। तीनों ही वातवलय बीस-बीस हजार योजन मोटे हैं। घनोदधिका रंग मुंगके समान, घनवातका गोमूत्रके समान और तनुवातका रंग अव्यक्त है। रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसके तीन भाग हैं। १ खरभाग २ पंकबहुल ३ अब्बहुल । चित्र आदि सोलह प्रकारके रत्नोंकी प्रभासे चमचमाता हुआ खरपृथिवी भाग सोलह हजार योजन मोटा है। पंकबहुल भाग चौरासी हजार योजन मोटा है और अब्बहुल भाग अस्सी हजार योजन मोटा है। खर पृथिवी भागके ऊपर और नीचेकी ओर एक एक हजार योजन छोड़कर मध्यके १४ हजार योजनमें किन्नर किंपुरुष महोरग गन्धर्व यक्ष भत और पिशाच इन सात व्यन्तरोंके तथा नाग विद्यत सपर्ण अग्नि वात स्तनित उदधि द्वीप और दिक्कुमार इन नव भवनवासियोंके निवास हैं। पंकबहुल भागमें असुर और राक्षसोंके आवास हैं। अब्बहुल भागमें नरक बिल है। शर्कराप्रभाकी मुटाई ३२ हजार योजन, बालकाप्रभाकी २८ हजार योजन, इस तरह छठवीं पृथिवी तक चार चार हजार योजन कम होती गई है। सातवीं नरकभूमि आठ हजार योजन मोटी है । सभीमें तिरछा अन्तर असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy