SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ तत्वार्थवार्तिक [ २९-१० 1 लक्षणे नहीं हो सकता; क्योंकि एक उपयोग क्षणके नष्ट हो जानेपर भी दूसरा उसका स्थान ले लेता है, कभी भी उपयोगकी धारा टूटती नहीं है । पर्याय दृष्टिसे अमुक पदार्थ - विषयक उपयोगका नाश होनेपर भी द्रव्यदृष्टिसे उपयोग सामान्य बना ही रहता है । यदि उपयोगका सर्वथा विनाश माना जाय तो उत्तर कालमें स्मरण प्रत्यभिज्ञान आदि नहीं हो सकेंगे क्योंकि स्मरण स्वयं अनुभूत पदार्थका स्वयंको ही होता है अन्यके द्वारा अनुभूतका अन्यको नहीं । स्मरणके अभाव में समस्त लोकव्यवहारका लोप ही हो जायगा । 8 २४ उपयोगको पृथक् गुण मानकर उसके सम्बन्धको लक्षण कहना उचित नहीं है, क्योंकि यदि ज्ञानादि उपयोगको आत्मासे पृथक् माना जाता है तो उसका 'आत्म ही सम्बन्ध हो अन्यसे नहीं" यह नियम नहीं बन सकेगा । अतः उपयोगको आत्मभूत लक्षण मानना ही उचित है । दंड तो अनात्मभूत है । अतः वह पृथक् रहकर भी सम्बन्धसे लक्षण बन सकता है । उपयोगके भेद सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥६॥ आठ प्रकारका ज्ञान और चार प्रकारका दर्शन, इस प्रकार उपयोग दो प्रकारका है । १-२ साकार और अनाकार दो प्रकारका उपयोग है । ज्ञान साकार होता ह तथा दर्शन निराकार । यद्यपि दर्शन पूर्वकालभावी है फिर भी विशेष ग्राहक होनेके कारण पूज्य होनेसे ज्ञानका ग्रहण पहिले किया है । १३ ज्ञानकी संख्या आठ पहिले लिखी गई है अतः ज्ञानकी पूज्यता सिद्ध होती है । इसी तरह 'छोटी संख्याका पहिले ग्रहण करना चाहिए' इस व्याकरणके सामान्य नियमके रहते हुए भी 'पूज्यका प्रथम ग्रहण होता है' इस विशेष नियमके अनुसार ज्ञानकी आठ संख्याका प्रथम ग्रहण किया गया है। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभङ्गावधिज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । ये उपयोग निरावरण केवली में युगपत् होते हैं तथा छद्मस्थोंके क्रमशः । । जीवोंके भेद संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ संसारी और मुक्तके भेदसे जीव दो प्रकार के हैं । ११-२ अपने किए कर्मो से स्वयं पर्यायान्तरको प्राप्त होना संसार ह । आत्मा स्वयं कर्मोंका कर्त्ता है और उनके फलोंका भोक्ता । सांख्यका यह मत कि - 'प्रकृति कर्त्री है और पुरुष फल भोगता है' नितान्त असङ्गत है; क्योंकि अचेतन प्रकृतिमें घटादिकी तरह पुण्यपापकी कर्तृता नहीं आ सकती । यदि अन्यकृत कर्मों का फल अन्यको भोगना पड़े तो मुक्ति नहीं हो सकती और कृतप्रणाश ( किये गये कर्मों का निष्फल होना) नामका दूषण होता है । संसार द्रव्य क्षेत्र काल भाव और भव इस प्रकार पांच प्रकारका है । जिनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy