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२।८] हिन्दी-सार
३४९ ४ गुणी आत्मा और ज्ञानादि गुणमें सर्वथा भेद मानना उचित नहीं है । क्योंकि यदि आत्मा ज्ञानादि स्वभाव न हो तो उसका निश्चायक कोई स्वभाव न होनेसे अभाव हो जायगा और इसी तरह ज्ञानादिका भी निराश्रय होनेसे सद्भाव सिद्ध नहीं
हो सकेगा।
५-६ प्रश्न-गुणी लक्ष्य है और गुण लक्षण है । लक्ष्य और लक्षण तो जुदे जुदे होते हैं। अतः आत्मा और ज्ञानमें भेद मानना चाहिए ? उत्तर-यदि लक्ष्य और लक्षणमें सर्वथा भेद माना जाय तो अनवस्था हो जायगी क्योंकि लक्षणका परिचायक अन्य लक्षण मानना होगा उसका भी परिचायक अन्य। यदि लक्षणका परिचायक अन्य लक्षण नहीं माना जाता है तो लक्षणशून्य होनेसे उसका मण्डूक शिखण्डकी तरह अभाव हो जायगा । लक्ष्य और लक्षणमें कथञ्चित् भेद माननेसे लक्षणके पृथक् लक्षणकी आवश्यकता नहीं रहती उसका साधारणलक्षण 'तल्लक्ष्यमें रहनेवाला' यह बन जाता है। लक्ष्य और लक्षण पृथक् उपलब्ध न होनेसे अभिन्न होकर भी संज्ञा संख्या गुण-गुणी आदिके भेदसे भिन्न भी होते हैं।
७-१२ प्रश्न-जैसे दूध का दूध रूपसे ही परिणमन नहीं होता किन्तु दही रूपसे, उसी तरह ज्ञानात्मक आत्माका ज्ञानरूपसे परिणमन नहीं हो सकेगा। अतः जीवके ज्ञानादि उपयोग नहीं होना चाहिए। यदि आप यह कहें कि आत्माका ज्ञानरूपसे तो उपयोग होगा दूधका दूध रूपसे नहीं तो हम भी यह कह सकते हैं कि दूधका दूध रूपसे उपयोग हो, पर आत्माका ज्ञान रूपसे न हो। यह पक्ष आपके लिए अनिष्ट है। उत्तर-चूंकि आत्मा और ज्ञानमें अभेद है इसीलिए उसका ज्ञानरूपसे उपयोग होता है । आकाशका सर्वथा भिन्न रूपादिक रूपसे उपयोग नहीं देखा जाता । जिस प्रकार गायके उदरमें दूध बननेके योग्य तृणजलादि द्रव्योंका दूध रूपसे परिणमन होता है । वे तृणादि द्रव्यदृष्टिसे दूध पर्यायके सम्मुख होनेसे दूध कहे जाते हैं
और आगे वे ही दूध पर्यायको धारण करते हैं उसी तरह ज्ञानपर्यायके अभिमुख जीव भी ज्ञानव्यपदेशको प्राप्त करके स्वयं घटपटादि-विषयक अवग्रहादि ज्ञान पर्यायको धारण करता है अतः द्रव्यदृष्टिसे उसका ही उसी रूपसे परिणमन सिद्ध होता है । जो जिस रूप नहीं उसका उस रूपसे परिणमन मानने में अतिप्रसङ्ग दोष आता है । देखिए आपके वचन स्वपक्ष साधन और परपक्षदूषणरूप हैं। उनका स्वपक्ष साधन और परपक्षदूषणरूपसे ही परिणमन होता है। जैसे आप दूधका दही रूप अन्यथापरिणमन ही मानते हो दूधरूप नहीं उसी तरह अपने वचनोंका भी स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषणरूपसे परिणमन नहीं होकर अन्यथा ही परिणमन मानना होगा। आप स्वयं रूपाद्यात्मक पृथिवी आदि महाभूतोंका रूपादिक रूपसे ही परिणमन मानते ही हैं। यदि अन्यथा परिणमन मानोगे तो स्वसिद्धान्तविरोध होगा। जिसके मतमें सदा आत्मा ज्ञानात्मक ही रहता है उसके मतमें आत्माका ज्ञानरूपसे परिणमन तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस रूपसे वह स्वयं परिणत है ही। जैन मतमें आत्मा कभी ज्ञानरूपसे, कभी दर्शनरूपसे और कभी सुखादिरूपसे परिणमन करता रहता है। अतः कभी ज्ञानात्मकका ज्ञानात्मक भी परिणमन होता है तथा कभी दर्शनात्मक आदि रूप भी । यदि सर्वथा किसी एक रूपसे आत्माका परिणमन माना जाय तो फिर उस पर्यायका कभी विराम नहीं हो सकेगा। यदि हुआ तो आत्माका ही अभाव हो जायगा। तदात्मकका ही तद्रूप परिणमन देखा जाता है। देखो, गायके स्तनोंसे निकला हुआ
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