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२७] हिन्दी-सार
३४७ क्रोधी । ३ पारिणामिक-औपशमिक-भव्य और उपशान्तकषाय । ४ पारिणामिक-क्षायिकभव्य और क्षीणकषाय । ५ पारिणामिक-क्षायोपशमिक-संयत और भव्य । इस तरह द्विभावसंयोगी २५ त्रिभाव संयोगी १० और पंचभावसंयोगी १ मिलकर कुल ३६ भंग हो जाते हैं । इन्हीं छत्तीसमें चतुर्भावसंयोगी ५ भंग मिलानेपर ४१ प्रकारके भी सान्निपातिक भाव होते हैं।
२३ यद्यपि औपशमिक क्षायिक औदयिक आदि भाव पुद्गल कर्मो के उदय उपशम निर्जरा आदिकी अपेक्षा रखते हैं, फिर भी वे आत्माके ही परिणाम हैं। आत्मा ही कर्मनिमित्तसे उन उन परिणामोंको प्राप्त करता है, और इसीलिए इन परिणामोंको आत्माका असाधारण स्वतत्त्व कहा है। कहा भी है-"जिस समय जो द्रव्य जिस रूपसे परिणत होता है उस समय वह तन्मय हो जाता है। इसलिए धर्मपरिणत आत्मा धर्म कहा जाता है।"
२४-२७ प्रश्न-जूंकि आत्मा अमूर्त है अतः उसका कर्मपुद्गलोंसे अभिभव नहीं होना चाहिए ? उत्तर-अनादि कर्मबन्धनके कारण उसमें विशेष शक्ति आ जाती है । अनादि पारिणामिक चैतन्यवान् आत्माकी नारकादि मतिज्ञानादि रूप पर्याएं भी चेतन ही हैं। वह अनादि कार्मण शरीरके कारण मूर्तिमान् हो रहा है और इसीलिए उस पर्याय सम्बन्धी शक्तिके कारण मूर्तिक कर्मो को ग्रहण करता है। आत्मा कर्मबद्ध होनेसे कथञ्चित् मूर्तिक है तथा अपने ज्ञानादि स्वभावको न छोड़नेके कारण अमूर्तिक है । जिस प्रकार मदिराको पीकर मनुष्य मूच्छित हो जाता है, उसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है उसी तरह कर्मोदयसे आत्माके स्वाभाविक ज्ञानादि गुण अभिभूत हो जाते हैं । मदिराके द्वारा इन्द्रियों में विभ्रम या मूर्छा आदि मानना ठीक नहीं है; क्योंकि जब इन्द्रियां अचेतन हैं तो अचेतनमें बेहोशी आ नहीं सकती अन्यथा जिस पात्रमें मदिरा रखी है उसे ही मूछित हो जाना चाहिए । यदि इन्द्रियोंमें चैतन्य है तो यह सिद्ध हो जाता है कि बेहोशी चेतनमें होती है न कि अचेतन में।
पूर्वपक्ष-(चार्वाक)-जिस प्रकार महुआ गुड़ आदिके सड़ाने पर उनमें मादकता प्रकट हो जाती है उसी तरह पृथिवी जल आदि भूतोंका विशेष रासायनिक मिश्रण होनेपर सुखदुःखादिरूप चैतन्य प्रकट हो जाता है, कोई स्वतन्त्र अमूर्त चैतन्य नहीं है।
उत्तरपक्ष (जैन)-सुखादिकसे रूपादिकमें विलक्षणता है । रूपरसादि पृथिवी आदि के गुण जब पृथिवी आदिको विभक्त कर देते हैं तब कम हो जाते हैं और जब पृथिवी आदि अविभक्त रहते हैं तब अधिक देखे जाते हैं। ऐसे ही शरीरके अवयवोंके विभवत या अविभक्त कहने पर सुख ज्ञानादि गुणोंमें न्यूनाधिकता नहीं देखी जाती। यदि सुखादि पृथिवी आदिके गुण हों तो मृत शरीरमें वे गुण रूपादि गुणोंकी तरह अवश्य मिलने चाहिए। यह तर्क तो उचित नहीं है कि-'मृत शरीरसे कुछ सूक्ष्म भूत निकल गए हैं, अतः ज्ञानादि नहीं मिलते' ; क्योंकि बहुतसे स्थूल भूत जब मिलते हैं तो ज्ञानादि गुणोंका अभाव नहीं होना चाहिए । यदि सूक्ष्म भूतोंके निकल जानेसे वे गुण मृत शरीरमें नहीं रहे तो वे गुण उन सूक्ष्म भूतोंके ही माने जाने चाहिए न कि समुदाय प्राप्त सभी भूतोंके । ऐसी दशामें मदिराका दृष्टान्त समुचित नहीं होगा क्योंकि मदिरामें तो कण-कणमें मादकता
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