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________________ ११२२ ] हिन्दी - सार अपने नरकबिलोंके ऊपरी भाग तक है और तिरछे असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन है । क्षयोपशमनिमित्तक अवधि क्षयोपशमनिमित्तः पडविकल्पः शेषाणाम् ॥२२॥ अवधिज्ञानावरण के सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षय आगामीका सदवस्था उपशम और देशघाती प्रकृतिका उदय रूप क्षयोपशमसे होनेवाला अवधिज्ञान शेष अर्थात् मनुष्य और तिर्य चोंके होता है । ११- ३ शेष ग्रहणसे देवनारकियोंके अतिरिक्त सभी प्राणिमात्र के अवधिका विधान नहीं समझना चाहिए क्योंकि असंज्ञी और अपर्याप्तकोंमें इसकी शक्ति ही नहीं है । संज्ञी और पर्याप्तकों में भी उन्हीं के, जिनके सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम हो गया है । यद्यपि सभी अवधि क्षयोपशमनिमित्तक होती है फिर भी विशेष रूपसे क्षयोपशमके ग्रहण करनेसे यह नियम होता है कि मनुष्य और तिर्यचोंके क्षयोपशमनिमित्तक ही अवधिज्ञान होता है भवप्रत्यय नहीं । ३२१ १४- अवधिज्ञानके अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान अवस्थित और अनस्थित छह भेद हैं । कोई अवधि सूर्यप्रकाशकी तरह पीछे-पीछे भवान्तर तक जाती है । कोई वहीं रुक जाती है जैसे मूर्खका प्रश्न । कोई अवधि सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिके कारण पत्तों में लगी हुई अग्निकी तरह असंख्यातलोक तक बढ़ती है । कोई अवधि ईंधन-रहित अग्निकी तरह अंगुलके असंख्येय भाग तक कम हो जाती है । कोई raft ज्यों की त्यों स्थिर रहती है न कम होती है और न बढ़ती है जैसे कि तिल आदि चिह्न | वायुसे दोलित जलकी लहरोंकी तरह कोई अवधि घटती भी है और बढ़ती भी है । देशraft परमावधि और सर्वावधिके भेदसे भी अवधि ज्ञान तीन प्रकारका है । देशावधि और परमावधिके जघन्य उत्कृष्ट और अजघन्योकृष्ट ये तीन प्रकार हैं । सर्वावधि एक ही प्रकारका है । देशावधिका जघन्यक्षेत्र उत्सेधांगुलका असंख्यात भाग है और उत्कृष्ट सर्वलोक । मध्यमक्षेत्र जघन्य और उत्कृष्टके बीचका असंख्यात प्रकारका है । परमावधिका जघन्यक्षेत्र एक प्रदेश अधिक लोक प्रमाण है और उत्कृष्ट असंख्यात लोक प्रमाण है | मध्यके विकल्प अजघन्योत्कृष्ट क्षेत्र हैं । परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहिर असंख्यात लोकक्षेत्र सर्वावधिका है । उपर्युक्त अनुगामी आदि छह भेदोंके साथ प्रतिपाती अर्थात् बिजलीकी चमककी तरह विनाशशील बीचमें ही छूटनेवाला और अप्रतिपाती अर्थात् केवलज्ञान होने तक नहीं छूटनेवाला ये आठों भेद देशावधिके होते हैं । परमावध हीयमान और प्रतिपाती नहीं होती । सर्वावधिके अवस्थित अनुगामी अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार ही भेद होते हैं । सर्वजघन्य देशावधिका उत्सेधांगुलका असंख्यातवां भाग क्षेत्र, आवलिका असंख्यातवां भाग काल और अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्य है, अर्थात् इतने बड़े असंख्यात स्कन्धों में ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । स्वविषय स्कन्धके अनेक रूपादि भाव हैं । एक जीवके प्रदेशोत्तर क्षेत्र वृद्धि नहीं होती, नाना जीवोंकी अपेक्षा प्रदेशोत्तर क्षेत्रका विकल्प संभव है । एक जीवके मंडूकप्लुति क्रमसे अंगुलके असंख्येय भाग प्रमाण क्षेत्रवृद्धि होती है - सर्वलोक तक । कालवृद्धि एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा एक समय दो समय आदि आवलिके असंख्यात ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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