________________
२६८ तत्त्वार्थवार्तिक
[१११ से भी प्रतीत होती है यह प्रतिज्ञा भी नहीं रही। इसी तरह आत्मा और ज्ञानमें भी समझ लेना चाहिए। अतः आत्माको स्वतः ज्ञानस्वरूप मानना चाहिए अन्यथा अनवस्था और प्रतिज्ञा-हानि दूषण आते हैं।
१० जिस प्रकार दण्डका सम्बन्ध होनेपर भी पुरुष स्वयं दण्ड नहीं बन जाता किन्तु दण्डवान् या दण्डी इस व्यवहारको ही प्राप्त होता है उसी तरह उष्णत्व नामके विशिष्ट सामान्यके सम्बन्ध होनेपर भी उष्णगुण 'उष्णत्ववान्' तो बन सकता है स्वतः उष्ण नहीं । इसी तरह अग्नि भी उष्णवान् बन सकती है स्वतः उष्ण नहीं, क्योंकि द्रव्य गुण और सामान्य पदार्थ वैशेषिकोंके मतसे पृथक् स्वतन्त्र हैं।
११ प्रश्न-वैशेषिक समवाय नामका सम्बन्ध मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थों में 'इह इदम्' यह प्रत्यय होता है और इसीसे गुण-गुणीमें अभेदकी तरह भान होने लगता है। इस समवाय सम्बन्धके कारण उष्णत्वसमवायसे उष्णगुण उष्ण बन जायगा और उष्णगुणके समवायसे अग्नि उष्ण हो जायगी ? उत्तर-नहीं, स्वतन्त्र पदार्थोंमें समवायका कोई नियम नहीं बन सकता। जब अग्नि और उष्ण भिन्न हैं तब क्या कारण है कि उष्णका समवाय अग्निमें ही होता है जलमें नहीं ? उष्णत्वका समवाय उष्णमें ही होता है शीतमें नहीं ? अतः उष्णता को अग्निद्रव्यका ही परिणमन मानना चाहिए, पृथक् पदार्थ नहीं।
१२-१३ समवाय नामका स्वतन्त्र पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार गुणकी गुणीमें समवाय सम्बन्धसे वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवायकी गुण और गुणीमें किस सम्बन्धसे वृत्ति होगी ? समवायान्तरसे तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोगसे भी नहीं, क्योंकि दो पृथक् सिद्ध द्रव्योंमें ही संयोग होता है। संयोग
और समवायसे भिन्न तीसरा कोई सम्बन्ध है भी नहीं। अतः अपने समवायियोंसे असम्बद्ध होनेके कारण समवाय नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होता। यदि कहा जाय किचूंकि समवाय 'सम्बन्ध' है अतः उसे स्वसम्बन्धियोंमें रहने के लिए अन्य सम्बन्धकी आवश्यकता नहीं है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोगसे व्यभिचारदूषण आता है। संयोग भी 'सम्बन्ध' है पर उसे स्वसम्बन्धियोंमें समवायसे रहना पड़ता है।
१४ जिस प्रकार दीपक स्वप्रकाशी और परप्रकाशी दोनों है उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्धकी अपेक्षा किए बिना स्वतः ही द्रव्यादिकी परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायगा।' यह तर्क उचित नहीं है ; क्योंकि ऐसा माननेसे समवायको द्रव्यादिकी पर्याय ही माननी पड़ेगी। जैसे दीपक प्रकाशस्वरूपसे अभिन्न है अतः स्वप्रकाशमें उसे प्रकाशान्तरकी आवश्यकता नहीं होती उसी तरह न केवल समवायकोही किन्तु गुण कर्म सामान्य और विशेषको भी द्रव्यकी ही पर्यायविशेष मानना होगा। द्रव्य ही बाहय-आभ्यन्तर कारणोंसे गुण कर्म सामान्य विशेष समवाय आदि पर्यायोंको प्राप्त हो जाता है। दीपकका दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थोंसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उस तरह समवायकी द्रव्यादिसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यदि गुणादि द्रव्यसे भिन्न हों, तो द्रव्यमें अद्रव्यत्वका प्रसंग तो होगा ही, साथ ही साथ निराश्रय होनेसे गुणादिका भी अभाव हो जायगा । अतः गुणादिको द्रव्यका ही पर्यायविशेष मानना युक्तिसंगत है।
१५-१६ जब ज्ञान क्षणिक तथा एकार्थग्राही है तब ऐसे ज्ञानसे यह विवेक ही नहीं हो सकता कि यतसिद्धों-पृथक सिद्धोंका संयोग होता है तथा अयुतसिद्धोंका समवाय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org