SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपक की लौ ७३ अक्सर जब कभी आप किसी सुखद चेहरे या मनमोहक आकार की तरफ देखते हैं, तो आपका ध्यान उस दिशा में बँट जाता है। जब आप इस तरह से किसी ओर आकर्षित होते हैं, वह सम्मोहन या अस्पष्ट सोच का असर ही है। जो भी आपको स्वयं से, अपनी आत्मा से परे ले जाता है, किसी वस्तु या व्यक्ति को अपने अधीन करने के लिए, जकड़ने के लिए, वशीभूत करने के लिए, वह बाहरी प्रभाव ही है। वह प्रभाव तभी कम होगा जब आप अपने अनुभव में देख सकेंगे कि आकारों वाले संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसपर आप हमेशा निर्भर रह सकते हैं। इस तरह की सम्मोहनात्मक भाव-समाधि क्यों होती है? क्योंकि आपको अपने शरीर से अत्यधिक मोह है। इस निर्भरता को भंग करने के लिए आपको शरीर के घटक तत्त्वों को उनके वास्तविक रूप में देखना होगा। अन्यथा, मन और इंद्रियाँ परस्पर उलझते रहेंगे और आपको भ्रमित करते रहेंगे। अब आइए, उस प्रक्रिया को कुछ विस्तार से समझें जिसकी वजह से अनजान मन प्रभावित होता है। उस व्यक्ति को देखिए जिसकी नज़र किसी सुंदर चेहरे की तरफ आकृष्ट हुई है, उसकी सभी इंद्रियाँ उस ओर झुक गई हैं। उसका मन सोचने लगता है कि उस सुंदरी से कैसे मिले, और वह इस सुंदरी को लेकर योजनाएँ बनाने लग जाता है। यदि वह अपने आपको इस तरह परिचालित होने देगा और अपने विचारों या व्यवहारों पर लगाम नहीं लगाएगा, तो यह विचार प्रक्रिया जारी रहेगी। इस नई सुंदरी की तुलना में उसे अपना वैवाहिक जीवन और परिवार फीका और अरोचक लगने लगेगा। उसका मन कहीं और बस गया है। अत: वह अपनी सारी शक्ति इस नूतन आकर्षण को प्राप्त करने में लगा देगा। आप देख सकते हैं तलाक का कारण आकर्षण का यही बीज है जो उसके मन में बस गया है। मन इस इच्छारूपी बीज को बढ़ाने के लिए हर संभव बहाना ढूँढता रहता है। यह व्यक्ति जो पहले अपनी पत्नी से उम्मीद करता था कि वह उसका ध्यान रखते हुए पूछेगी, 'आपने आज क्या किया था? आज आप कहाँ गए थे?' अब इन्हीं प्रश्नों को सुनकर झल्ला उठता है। जब उसके मन ने उसके साथ खिलवाड़ करना शुरू नहीं किया था, तब यही प्रश्न सुनकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy