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________________ ७० जीवन का उत्कर्ष तुम्हारे पास आऊँगा। अगर तुम जागृत रहे, तो मैं तुम पर वार नहीं करूँगा। अगर तुम जागृत नहीं रहे, तो मैं वार करूँगा। इससे कठिन मार तो अभी बाकी है।' 'हाँ गुरुजी, शिष्य ने जवाब दिया। वह एक गंभीर एवं उत्सुक शिष्य था। वह जानता था, 'मेरे शिक्षक दिखने में कठोर हैं, लेकिन अंदर से कोमल हैं। मैं नहीं जानता कि वह मुझे क्यों चोट पहुँचा रहें हैं, लेकिन ऐसा करने में भी उनका कोई न कोई नेक इरादा होगा।' ___अब वह शिष्य किसी भी समय में किसी भी दिशा से वार पड़ने की की संभावना के लिए तैयार रहने लगा। इस तरह से वह निरंतर चौकन्ना एवं पूर्ण तत्पर रहने लगा। जैसे ही शिक्षक अपने म्यान पर हाथ रखते, वह जागृत हो जाता था और उनकी तरफ देखने लगता। तत्पश्चात् बैंजो ने उससे कहा, 'अब तुम्हारे प्रशिक्षण का दूसरा भाग शुरू हो रहा है। मैं रात्रि में आऊँगा और अगर तुम नहीं जगे, तो मैं वार करूँगा।' अब रात्रि में भी वह शिष्य अपने शिक्षक के आने से पूर्व ही जान जाता था। दिन और रात, वह सतर्क रहता था। उसके मन में अन्य कोई इच्छा नहीं रही। उसका संपूर्ण अस्तित्व जागरूकता के अलावा और कुछ नहीं था। दो वर्ष के उपरांत एक रात को शिक्षक आए, वार करने के लिए नहीं, बल्कि उसे देखकर मुस्कुराए और प्रशंसा करने लगे, 'अब तुम सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी हो!' 'लेकिन आपने तो मुझे कुछ भी नहीं सिखाया है! शिष्य ने तर्क किया। 'तलवारबाजी सीखना कोई बड़ी बात नहीं है, शिक्षक ने समझाया। 'वह तो मैं तुम्हें एकदम कम समय में सिखा सकता हूँ, लेकिन तलवार किस दिशा से आ रही है, यह जानना अधिक महत्त्वपूर्ण है। जागरूक रहना सब से बड़ी बात है। भावावेग, आदतें, निष्क्रियता एवं आलस्य से ऊपर उठने में ही असली बहादुरी है। अब संसार में कहीं भी चले जाओ। कोई भी तुम्हें जीत नहीं सकता क्योंकि गहरी नींद में भी तुम भान नहीं खोते हो। तुम्हें सिखाने का मेरा ध्येय पूर्ण हुआ। वह था तुम्हें जागृत करना।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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