SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ दीपक की लौ स्पष्ट देखते हैं कि हमारे अंदर क्या है जो छाया, उदासी एवं गहन इच्छाओं से ढका हुआ है। अन्यथा, वे नकारात्मक कंपन जो हमारे अंदर की गुरुत्वाकर्षण प्रकृति से बने हैं, कर्म या पुद्गलों को हमारी तरफ आकर्षित करते रहेंगे एवं हमारी दृष्टि को धुंधला करते रहेंगे। जब तक हम अपने विचारों को बिना किसी लगाम के इधर-उधर दौड़ने देंगे, तब तक हमारा मन इन अवांछनीय तत्त्वों के आगमन से प्रभावित होता रहेगा। अपने विचारों को दबाने के बजाय उनका निरीक्षण करें। क्या आप उदासी एवं अपराध भाव से बाहर आना चाहते हैं? अगर हाँ, तो देखिए कि दुःख कैसे काम करता है। देखिए कि वह कैसे कुछ दूरी पर एक कोने में खड़ा होकर आपके आने की राह देखता है, कैसे वह अचानक आपको सोचने का अवसर दिए बगैर आपके मन पर हावी हो जाता है। आपकी विवेक बुद्धि इससे भ्रमित हो जाती है। एक पल पहले आप मुस्कान से खिल रहे थे, दूसरे ही पल आप उदास और हताश हो गए। क्या हुआ? आपकी खुशी कहाँ चली गई? यह उदासी कहाँ थी? यह आपके मन में छिपी हुई थी। जब दुःख आप पर हावी हो जाता है, आपके पास उससे बाहर आने की शक्ति नहीं रहती। आप नीचे ही नीचे गिरने लगते हैं। आपने गौर किया होगा कि जब दुःख के बादल घिरे हुए हैं, तब भले ही आप मंत्रोच्चारण या प्रार्थना करें, आप स्वयं को उस एहसास से बाहर नहीं निकाल सकते। उन क्षणों में आपका ज्ञान कहाँ चला जाता है? वह एक कोने में पड़ा रहता है। हालाँकि हमारे मस्तिष्क में ज्ञान के अनेक उद्धरण भरे हुए हैं, क्या अवसाद के समय में हम इनमें से किसी का उपयोग कर पाते हैं? नहीं!, हम नहीं करते। हमने पुस्तकें पढ़ी हैं कि कैसे खुश रहें, मगर क्या वे हमारी मदद कर पाती हैं? नहीं! ऐसा प्रतीत होता है कि हम उनके ज्ञान का उपयोग तभी कर पाते हैं जब हम खुशहाल मनोदशा में होते हैं। मगर आवश्यकता तो इस बात की है कि हम अपने ज्ञान एवं अंतर्दृष्टि का उपयोग अवसाद के क्षणों में करना सीखें। हमें उनका स्मरण करना चाहिए एवं उन्हें तुरंत बाहर लाकर उनका उपयोग करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy