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________________ जीवन का उत्कर्ष देखते हैं कि उनका शरीर उनके आदेश पर चल सकता है। सिर्फ आंतरिक बोध को बदलने की आवश्यकता है। इसीलिए मूल सोपानों में 'शौच' भी माना गया है। अपने शरीर एवं मन को स्वच्छ रखें और आप ईश्वरत्व की तरफ बढ़ेंगे। मैले शरीर, गंदे मुँह और दुर्गंधित वस्त्र वाला व्यक्ति मुक्ति की राह पर नहीं चल पाएगा। सर्वप्रथम शरीर को स्वस्थ एवं स्वच्छ रखना चाहिए। ध्यान रखिए कि रोम-रोम में आप अपनी ऊर्जा को महसूस कर रहे हैं। ध्यान रखिए कि आपकी भावनाएँ स्वच्छ हों। अपनी चेतना से गलत इरादों को हटा दें। गपशप को बढ़ावा न दें। अपने हाथों का दुरुपयोग न करें, उनको सेवाकाज में लगाइए। भोजन करते समय अपने खाने के साथ लय में रहें। संत भोजन के समय मौन धारण करते हुए अपने आप से कहते हैं, 'हे प्रभु! आपके प्रति अभिज्ञ रहने से मैं जान सका हूँ कि मेरा शरीर मुक्ति का निमित्त है। इसीलिए इस निर्दोष एवं स्वीकृत आहार से मैं अपने शरीर को पोषण देता हूँ जिससे मुझे अपनी मंज़िल मिल जाए।' इस विचार को ध्यान में रखते हुए आप शरीर को अपने उत्कर्ष के लिए एक सुंदर एवं उपयोगी वाहन बना लेते हैं। अब आप उसे वैसे ही देखते हैं जैसे वह वास्तव में है। __ अवलोकन कीजिए, 'मैं वह नहीं हूँ जिसका मैं प्रयोग कर रहा हूँ। मेरे संग्रह की वस्तुएँ मेरे सबसे श्रेष्ठ उपयोग, उत्कर्ष, प्रगति एवं संप्रेषण के लिए हैं।' जब कोई वस्तु आपके पास आती है, तो आप उसे जगह देते हैं। जब वह जाने लगती है, तब जाने देते हैं, तैरने देते हैं। इसमें सींगों को नीचा करके उसे पाने के लिए किसी बैल जैसे झगड़ने की आवश्यकता नहीं है! जो लोग आपके साथ रहना चाहते हैं, उन्हें अपने साथ रहने दीजिए। जो आपके साथ नहीं रहना चाहते, उन्हें अलविदा कह दीजिए! अगर वे लौटकर वापस आएँ, तब उनका स्वागत कीजिए! बीती बातों की दुश्मनी न रखें, प्रतिशोध न करें। अगर कोई वस्तु आपसे दूर चली गई या जा रही है, तो उसे जाने दें! इस तरह आप एकदम मुक्त हो जाएँगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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