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________________ अतुल्य की खोज में ५९ मिली है। आपको अभिज्ञता मिलती है, 'मैं वह हूँ जो अविनाशी है। मैं वह हूँ जो अपरिवर्तित है। केवल बाह्य रूप बदलता रहता है।' चिंतन करते रहिए, 'यह शरीर और कुछ नहीं, मेरी आंतरिक सोच का प्रतिबिंब है।' जो नीच विचार में घिरा हुआ रहता है, उसका शरीर विकृत बन जाता है। जिसके उत्तम विचार हैं, उसका शरीर सुंदर बन जाता है। अगर आपके मन में किसी के प्रति क्रोध या कटुता का भाव है, वह आपके चेहरे पर दिखाई देगा। अगर आप एक स्वचालित कैमरा द्वारा क्रोध के क्षणों में अपनी तस्वीर खींचे, तो आप स्वयं को पहचानना नहीं चाहेंगे। चेहरे जवान या बूढ़े नहीं हैं, आपकी आंतरिक समझ ही उनको बदलती है। कितने जवान लोग हैं जिनके चेहरे पर निर्दयता है, और कितने वृद्ध हैं जिनके चेहरे कोमल हैं, करुणा से ओत-प्रोत। क्रोधित चेहरा व्यग्र रूप धारण करता है। वह विकृत हो जाता है। शांत चेहरा संतलित रूप धारण करता है क्योंकि उसके अंदर शांति है। संसार यंत्रणा या पीड़ा नहीं है। पीड़ा आपके स्वयं के असमंजस से है। संसार तटस्थ है। आप उसे जैसा चाहें, वैसे ढाल सकते हैं। ____ अतः हम देखते हैं कि हमारे शरीर की स्थिति अतीत के ज्ञान का परिणाम है। इसमें किसी दूसरे को दोष देने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ शरीर है और आत्मा है। आपका स्व ही शरीर को परिचालित करता है। इसमें हमारे शरीर का कोई दोष नहीं है कि वह कैसे दिखता है। तंदुरुस्ती, खुशहाली और प्रेम के आंतरिक एहसास से हम शनैः शनैः अपने शुभ विचारों द्वारा अपने आकार में बदलाव लाते हैं। अपने आंतरिक शुभ विचारों का परिणाम अंततः बाहर दृष्टिगोचर होता है। बाह्य संसार पर गौर कीजिए और आंतरिक संसार की अनुभूति कीजिए। इस तरह आप जान पाएँगे कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अपने शरीर में शुद्ध आनंद के साथ जिएँ; उसे साफ, सुंदर, शांत एवं आरोग्यजनक रखें। यह वाहन किसी स्वपीड़न के लिए नहीं है। जो इस सुंदर वाहन को नष्ट नहीं करता, वह सच्चा संत है, ज्ञानी है। अज्ञानी अपनी समझ को बदलने के बजाय अपने शरीर को यंत्रणा देते हैं। वे अपने शरीर को ऐसे सज़ा देते हैं मानो वही उनके कष्ट का कारण हो। वे यह नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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