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निर्भरता से मुक्ति
३७ सही दृष्टि के लिए हम चतुर्थ पहलू यानी एकत्व भावना पर ध्यान करेंगे। एकत्व यानी एक, मगर आपके मन में बहुत्व है। बहुत्व के कारण आप उस 'एक' को नहीं देखते हैं। उस 'एक' के इर्द-गिर्द ही सब कुछ परिक्रमा कर रहा है।
इस बात को हम इस तरह समझ सकते हैं - हमारे पास एक परिधि है और केन्द्र है। केन्द्र तो एक है, मगर परिधि पर अनेक हैं। परिधि इतनी विशाल, इतनी स्थूल है कि हमारे पास उस सूक्ष्म केन्द्र को देखने की अंतर्दृष्टि नहीं है। इसीलिए हम हमेशा परिधि पर चलते रहते हैं, स्वयं से बाहर। इसीलिए हम दोषारोपण करने के लिए किसी कारण को ढूँढ़ते रहते हैं। हम यह कहकर किसी दूसरे पर अपना दुःख थोपने में खुश हैं, 'अगर तुम मेरे जीवन में नहीं होते, तो मेरा जीवन स्वर्ग होता।' या इसी बात को हम उलटा भी कह देते हैं, 'अगर तुम मेरे जीवन में होते, तो मेरा जीवन स्वर्ग होता।'
परिधि की भूमिका इतनी भ्रामक है कि केन्द्र से नज़र छूट जाती है। देखने की आवश्यकता है कि संपूर्ण परिधि केन्द्र के लिए ही बनी हुई है, अगर केन्द्र का अस्तित्व नहीं होता तो परिधि का अस्तित्व भी नहीं होता।
स्वयं को कुछ क्षण के लिए देखिए, केन्द्र से परिधि की तरफ देखते हुए। अब तक आपका मन चौबीसों घंटे बहुत्व में उलझा हुआ था, यानी परिधि में। हर समय कोई व्यक्ति या कोई वस्तु आपके मन पर हावी रहता है - धन-संपत्ति, वैभव, शक्ति, कोई दोस्त या कोई दुश्मन। इसीलिए आप कभी भी स्वयं के साथ पूर्ण रूप से जुड़े हुए नहीं हैं। अगर कभी स्वयं के साथ अकेले भी बैठते हैं, तब भी कोई न कोई वस्तु आपका ध्यान खींचती रहती है। आप तो इस तरह जीते हैं मानो केन्द्र में कुछ भी नहीं है, मानो सब कुछ बाहर ही है। .. इस मूर्त संसार का भी अस्तित्व है। यह हमारे अस्तित्व का मूर्तिमान अर्ध भाग है। हमें इस पर विश्वास है। मगर यह भौतिक संसार जैसा है, उसे वैसा मानने के बजाय हम जब इससे आसक्त हो जाते हैं, तब समस्या पैदा होती है। तब हम अमूर्त संसार की उपेक्षा करने लगते हैं। जो दृश्यमान या मूर्त नहीं है, हमें उस पर विश्वास नहीं है।
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