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________________ ३२ जीवन का उत्कर्ष मगर सच्चा साधक भयभीत नहीं होता। अपने प्रस्थान के बारे में सोचते हुए उसके मन में पीड़ा नहीं होती। क्यों? क्योंकि वह पूर्ण रूप से समझ चुका है कि जो नित्य है, वह अनित्य नहीं होगा, एवं जो अनित्य है, वह नित्य नहीं होगा। हरेक का अपना-अपना स्वभाव है। साधक जानता है, 'जो मेरे भीतर है, सिर्फ वही नित्य है। सिर्फ मेरा निवास, स्थान, बाहरी वेशभूषा, आकार बदलते जाएँगे। ये सभी मुखौटे हैं, मगर वह एकभूत ज्वाला जो मैं हूँ, वह नहीं बदलेगा।' । ___ इसे जानने से कितना आत्मविश्वास मिलता है! जब ऐसा होता है, तब आप पहली बार घुन और अनाज का फर्क समझते हैं। आप देखते हैं कि किस तरह घुन और अनाज को आपने एक समझ लिया है। आप देखते हैं कि किस तरह आपने अपने मित्रों को इस स्थैतिक रोशनी में देखा है - उनके सत्व को देखने के बजाय सिर्फ उनकी छवि को देखा है। ___ अगर हम व्यक्ति की छवि के साथ रिश्ता बनाएँगे, तो वह मित्रता खोखली होगी। वह भौतिक लाभ पर आधारित है। जिस व्यक्ति के पास आध्यात्मिक दृष्टि है, वह वस्तुओं को अलग दृष्टिकोण से देखता है। वह देखता है कि जिन वस्तुओं को उसने इतना मूल्यवान समझा था, वे वास्तव में मूल्यवान नहीं हैं। वे सिर्फ किसी काल में किसी स्थान में उपयोग करने के साधन थे। अगर आप रूस में घूमने का टिकट खरीदेंगे, तो यहाँ भारत में उसका उपयोग नहीं हो सकेगा। उसका उपयोग सिर्फ वहीं हो सकता है। इसी तरह संसार की वस्तुएँ उन टिकटों के समान हैं। वे सिर्फ आपको एक जगह से दूसरी जगह ले जाती हैं। उसके आगे उनमें कोई सार्थकता नहीं है। __ आध्यात्मिक स्तर पर आधारित मित्रता स्थायी रहती है। क्यों? क्योंकि उसमें एक आंतरिक संबंध है, बाहरी संबंध से परे और आगे। एक लालची बूढ़ा था जिसने अपने गहनों और सोने के सिक्कों को अपने घर में छिपा रखा था। उसके गाँव में एक ज्वालामुखी का विस्फोट होने वाला था। प्राण बचाने के लिए भी समय नहीं था। मगर फिर भी अपने गहनों की पिटारी लाने के लिए वह वापस गया। पिटारी बहुत भारी थी। उसका एक ही बेटा था जो उससे भी ज्यादा लालची था। बेटे ने कहा 'पिताजी, मुझे यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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