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________________ जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति को ढक रहे थे, वे चले जाएंगे और आप जीवन का आनंद लेने लगेंगे। आप जिसके साथ भी होंगे और जहाँ भी होंगे, आनंद की अनुभूति करेंगे। इस तरह आप स्वयं को संसार के ऊँच और नीच से पृथक देखने लगेंगे। चक्र हमेशा निर्विघ्न घूमता रहता है, बदलाव लाने के लिए। अपनी अभिज्ञता से आप देखने लगेंगे कि वह किस तरह उद्देश्यपूर्वक बढ़ रहा है, आपके लिए कुछ सुंदर, कुछ नूतन लाने के लिए। जीवन का चक्र आपको चुनौती दे रहा है। बदलाव के बिना जीवन गंदला बन जाएगा। जहाँ परीक्षा नहीं है, वहाँ विकास नहीं होता। अस्थिर की भूमिका में जो स्थिर है, उसके साथ पहचान बनाने से आप दोनों से परे जा रहे हैं। इस तरह आप संसार के ध्येय का अनुभव करते हैं - निम्न से उच्चतर बनकर स्वयं को परिवर्तित करना, अंततः मोक्ष तक पहुँचकर जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाना। इस भावना पर चिंतन करने से हम अपने संपूर्ण चक्र को देखते हैं। हम कहते हैं, 'जब मेरा जन्म हुआ, मेरी माँ दर्द से कराह रही थी। फिर उसने मेरा चेहरा देखा और खुश हो गई। दर्द चला गया। जिस दर्द को माँ ने नौ महीने तक सहन किया, वह एक पल में चला गया। साथ ही, हम उन सभी को देखते हैं जो हमारे जीवन के निकट हैं - भाई-बहन, माता-पिता या जीवन साथी - और देखते ही देखते कुछ चले गए और कुछ यहीं हैं। वे लोग जिनसे हम अत्यधिक प्रेम करते हैं और जो हमसे प्रेम करते हैं, आते हैं और जाते हैं। वे हमेशा यहाँ नहीं रहते। जो हमसे घृणा करते हैं और जिनसे हम घृणा करते हैं, वे भी आते हैं और जाते हैं। यही वृहत् चक्र है, यही प्रक्रिया है। चिंतन इस तरह आगे बढ़ता है: “मैं दूसरों के बारे में ही क्यों सोचता हूँ? मैं भी चला जाऊँगा। जब मैं जाऊँगा, तब मैं भी उसी तरह दूसरों से अलग हो जाऊँगा जिस तरह वे मुझसे अलग हुए हैं। ऐसे में दूसरों के जाने पर मैं उदास क्यों हूँ? एक दिन मैं भी चला जाऊँगा। शायद मैं उसके बारे में नहीं सोचता हूँ क्योंकि उससे मुझे मानसिक भय होने लगता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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