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________________ असुरक्षित संसार में स्वयं की सुरक्षा १९ अंतर्मन सभी नश्वरों के पीछे जो अनश्वर है, उसकी अनुभूति करने लगता है। वह दो तरंगों के परस्पर विलीनीकरण और उससे नई तरंग के प्रकटीकरण को देखने लगता है। कोई कह सकता है, 'यह वस्तु अदृश्य हो गई है।' जिसने ध्यान किया है, वह उत्तर देगा, 'तुम अदृश्य होने की बात करते हो। क्या तुमने किसी वस्तु को प्रकट होते नहीं देखा? जो खो चुका है, उसे क्यों महत्त्व देते हो? जो पाया है, उसे क्यों नहीं देखते?' इसीलिए हमारे प्रथम ध्यान का विषय था वह अपरिवर्तनशील तत्त्व, जो परिवर्तनों के पीछे है। जिस संसार को आप देख रहें हैं, वह सतत चलायमान है। वह चलता रहा है, इसीलिए वह नवीन और ताज़ा है। लेकिन हमारा अज्ञानी मन इस परिवर्तन को नहीं चाहता । वस्तुएँ जैसी थीं, वह उनसे वैसे ही चिपके रहना चाहता है, उन्हें अपने पास रखना चाहता है। हर वस्तु को एक स्मारक में बदल देना मन की आदत है, उसे स्मारक बहुत प्रिय है। जब आप नित्य और अनित्य के बीच का अंतर जान लेंगे, तब आप दूसरी भावना के लिए तैयार हैं - अशरण भावना यानी असुरक्षित स्थिति । उसके पार है शरण यानी सुरक्षा । साधक सोचता है, 'मैं हमेशा किसी शरण की, किसी मसीहे की खोज में हूँ। जब कोई मुझे रास्ता दिखा रहा है, मेरा ध्यान रखता है, तब मेरा मन शांत है। मगर अब मैं जान चुका हूँ कि जो मैं स्वयं के लिए नहीं कर सकता, कोई दूसरा मेरे लिए नहीं करेगा।' इस चिंतन से मुझे एक नवीन दृष्टि मिली है - निर्भर नहीं रहने की । मानसिक निर्भरता हमारे अंदर बचपन से आ जाती है। अगर माँ चली गई, तो बच्चा रोता है । यह स्वाभाविक है। मगर पचास-साठ वर्ष की उम्र के लोग भी बच्चों की तरह रोते हैं जब उनकी माँ चली जाती है। क्यों? क्योंकि उनके अंदर उस लाचारी का एहसास हमेशा रहता है। वे अपने पैरों पर खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं। जब आप देखते हैं कि जिस पर आप टिके हुए थे, वही फिसल रहा है, तब भय को बढ़ते हुए देखिए । यह देखिए कि वह किस तरह आप पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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