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________________ जीवन का उत्कर्ष शाश्वत की चाह जगी नहीं है, वे सोचते हैं, 'कौन जानता है कि बाद में क्या होगा, पचास वर्ष बाद? मुझे अभी मज़ा लेने दो!' । इसीलिए उन दीक्षितों को, उन लोगों को जिन्हें वर्तमान में और आगामी जीवन में, या फिर यूँ कहें कि जीवन के बहाव में सच्ची दिलचस्पी है, उन्हें बारह चिंतन दिए जाते हैं। जिन्होंने हमें ये भावनाएँ दी हैं, उन्होंने जीवन की निरंतरता को देखा हैं, उसके अनंत प्रवाह का अनुभव किया है। उन्होंने जन्म से आरंभ नहीं किया, न ही मृत्यु पर बात खत्म की। उनके लिए जन्म एक तरंग है और मरण दूसरी तरंग। यदि आप पूछे, 'पहली तरंग कहाँ हैं', तो ज्ञानी कहेगा, 'वह दूसरी तरंग में निहित है। मुझे पहली तरंग दिखाओ और दूसरी तरंग देख लो। पहली तरंग ने दूसरी तरंग को जन्म दिया है।' यदि आप पहली तरंग के अस्तित्व को जानना चाहते हैं, तो आपको दूसरी तरंग को जानना होगा। यदि पहली तरंग शांत न हुई, तो दूसरी तरंग नहीं आएगी। दूसरी तरंग के आने का तात्पर्य है कि पहली तरंग विलीन हो चुकी है। कोई वस्तु विलीन होती है और कोई अन्य वस्तु प्रकट हो जाती है। यह पूर्ण प्रक्रिया है - विलीन होना और प्रकट होना। इसलिए जन्म कुछ नहीं है, कहीं किसी का मरण ही है। एक तरंग मृत्यु में विलीन होती है एवं दूसरी जन्म में प्रकट हो जाती है। ये दोनों तरंगें एक दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैं। जब हम इस गहन सत्य की, इस गहन अंतर्दृष्टि की अनुभूति करने लगेंगे, मात्र शब्दों और वाक्यों में नहीं, बल्कि हमारे वास्तविक अनुभव में, तब हम इस संसार में निर्भयता से जी सकेंगे। भले ही हम भय पर विजय पाने के कितने ही उपाय कर लें, लेकिन जब तक हम अनुभूति के बिना मात्र शब्दों के स्तर पर जीते रहेंगे, भय कायम रहेगा। लोग भयग्रस्त क्यों होते हैं? क्योंकि वे वस्तुओं को क्षय होते हुए, अदृश्य होते हुए देखते हैं। वे इस स्तर से परे नहीं गए हैं। इसलिए उनके दिमाग में भय हमेशा छाया रहता है। यह ध्यान हमें शनै-शनैः एक अन्य अभिगम का अनुभव करने देता है, एक ऐसे स्थान का जहाँ भय नहीं है। यह कैसे संभव है? क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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