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________________ १४८ जीवन का उत्कर्ष हो जाते हैं। अंतत: आपको जुड़ना है। जीवन में ऐसा भी समय आता है जब सभी बाहरी आकर्षण सारहीन प्रतीत होते हैं। जब व्यक्ति अस्सी वर्ष का हो जाए और आप उसे ऐसी कोई चीज़ दें जिसे वह अठारह वर्ष की उम्र में चाहता था, तो वह कहेगा, 'नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए। एक समय था जब मुझे इसकी चाह थी। अब वह चाह जाती रही। मैं स्वास्थ्य और शांति ही चाहता हूँ।' धर्म शब्द संस्कृत की 'धृ' धातु से निकला है, जिसका अर्थ है धारण करना, उठाना, धार्यते इति धर्मः। जब आप गर्त में गिरने वाले हैं, तब जो आपको उठाए हुए रहता है, या आपको ऊपर उठाता है, वह धर्म है। वह गुण, वह अंतर्दृष्टि, वह धर्म आपके अंदर ही है। जब हम उसे पहचान लेते हैं, हम नहीं गिरेंगे। हमें यह बात समझनी चाहिए। अन्यथा मित्रों, हर कदम पर खतरा है; हर कदम पर कई प्रकार के प्रलोभनों का शिकार बनने का भय है। ये प्रलोभन सिर्फ शारीरिक या ऐंद्रिक ही नहीं हैं, बल्कि नफरत, भीतरी कटुता, भीतरी क्रोध, और भीतरी उदासीनता के प्रलोभन भी हैं। जब आप दुःख, अवसाद या कटुता के शिकार हो जाते हैं, तो क्या होता है? आप इनके बारे में जितना सोचते रहते हैं, ये भावनाएँ उतनी ही अधिक बलवती होती जाती हैं। कटुता बढ़ती ही जाती है। दुःख और घना हो जाता है। जब आपको किसी के प्रति कड़वाहट की अनुभूति हो रही हो, तो अपने मन का निरीक्षण करें। अगर वह व्यक्ति चला गया, तब भी यह कटुता बनी रहती है। शायद उस व्यक्ति को पता भी नहीं चलता कि उसके प्रति आपकी भावना कैसी है, फिर भी वह कड़वाहट आपके भीतर सड़ती रहती है, आपके मन को कलंकित करती रहती है और आपकी मिठास को समाप्त कर देती है। इस तरह जीवन का बोझ बढ़ता जाता है। आप नहीं जानते कि इस तरह की नकारात्मकता आपको कहाँ ले जाएगी। मगर इसे धोने में, मन को साफ करने में समय लगता है। इसलिए हर कदम पर आपको अप्रमत्त रहना है, सावधान रहना है। जो कडवाहट से चिपका हो, वह स्वयं को पसंद नहीं करता। इस आत्म-तिरस्कार के कारण, वह दूसरों को अपने शत्रु के रूप में देखता है, उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी दुनियां उसके विरुद्ध षड़यंत्र रच रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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