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________________ द्वादश - धर्म भावना हमारी प्रकृति की वृत्ति जीवन एक महासागर है जिसमें तरंगें और लहरें निरंतर चलायमान हैं। एक भी पल नहीं आता जब सब कुछ शांत हो जाता है। ज्वार और भाटे निरंतर आते जाते हैं। इस महासागर में हम भी तरंगों के साथ आते-जाते रहते हैं। इन तरंगों के कारण हमारा मन भी स्थिर नहीं रहता। जब हम अपने बारे में ही विश्वस्त नहीं होते, हमारे अंदर असमंजस पैदा हो जाता है। हम नहीं जानते कि हमें क्या चाहिए, हमें कहाँ जाना है। हम यह भी नहीं जानते कि हम यहाँ क्यों हैं। अंतत: हमारे पास बस यह करने के लिए बचता है कि हम खाली दिनों को तुच्छ और अर्थहीन कार्यवाहियों से भर लें। पर हमें इन पुराने, घिसे-पिटे विचारों को हमारे जीवन से उसी प्रकार बाहर फेंकना है जिस प्रकार हम कूड़े-करकट को फेंकते हैं। अन्यथा हम उन बच्चों के समान होंगे, जो कल्पनालोक में विचरते हैं और छोटे-मोटे खिलौनों से चिपके रहते हैं। हमारा जीवन सतह पर रहेगा, हम बस कल्पनालोक में विचरते रहेंगे और अपने अस्तित्व की वास्तविक गहराइयों को उजागर नहीं कर पाएंगे। इसलिए अपने आपसे पूछे, 'इस अस्थिर और बेचैन संसार में स्थायी क्या है?' तरंगें स्थायी नहीं हैं; भावनाएँ और विचार निरंतर बदलते रहते हैं। इस तरह नवदीक्षितों के शिक्षण का अंतिम सोपान आ जाता है - तरंगायित महासागर से निकलकर धर्म के स्थिर टापू पर आना, जो वास्तविकता है। धर्म के कई अर्थ हैं: वास्तविकता, धार्मिक संप्रदाय, सच्चाई और प्रकृति। धर्म का पहला अर्थ है वास्तविकता। जब आपको अपनी वास्तविकता की गहरी अनुभूति हो जाती है, आप स्थिर रह पाते हैं। यदि आप उस स्थिर टापू तक नहीं पहुँच पाए, तो आप निरंतर क्रियाशीलता, प्रतिक्रियाशीलता की स्थिति में रहेंगे, निरंतर इंद्रियों, इच्छाओं, भावनाओं और विचारों से उलझे रहेंगे। इनका कोई अंत नहीं है! जैसे ही एक इच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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