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________________ १२४ जीवन का उत्कर्ष रिश्ता है? आप यहाँ किसलिए हैं? जब आप अपनी असली प्रकृति को जान जाएँगे, तब आप यह भी जान जाएँगे कि आप यहाँ किस लिए हैं। जब आप अपने सत्व और अपनी क्षणभंगुर प्रकृति में अंतर करना सीख जाएँगे, तब आप डर पर विजय पा लेंगे। इस भावना में दो चिंतन हैं: लोक और अलोक। यह ब्रह्मांड, यह तारामंडल, यह विश्व लोक है। इसके तत्त्वों को जानकर आप उसे जान जाते हैं जो पहले अज्ञात था । अज्ञात को जानकर आप अज्ञात के भय से मुक्त हो जाएँगे। आप इस ब्रह्मांड में सहजता से विचरण कर सकेंगे और अपने ध्येय की ओर निर्भयता और विश्वास के साथ बढ़ सकेंगे। लोक छह घटकों से बना है: जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जीव आत्मा है, अजीव पुद्गल है, धर्म यानी गति का नियम, अधर्म यानी स्थिति का नियम, आकाश यानी स्थान, और काल यानी समय। आकाश वह पात्र है जिसमें सब कुछ समाया हुआ है। उसमें क्या समाया हुआ है? आकार आकार क्या है? वह एक और पात्र है। जैसे पिंजड़े के अंदर चिड़िया है, वैसे आकार के अंदर विद्यमान है जीव, यानी चेतन ऊर्जा । लोक वह स्थान है जहाँ दो नियम क्रियाशील हैं, गति और स्थिति । इन दो नियमों के प्रभाव के कारण दो ऊर्जाएँ, यानी जीव और अजीव, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते-आते रहते हैं, गति और स्थिति के मध्य झूलते हुए । इन दो नियमों की क्रिया के फलस्वरूप लोक वह स्थान है जहाँ पुद्गल के परमाणु बनते-बिगड़ते रहते हैं । पुद्गल निरंतर बनता और नष्ट होता रहता है। चूँकि यह प्रक्रिया क्रम से होती है, इसलिए समय का अवलोकन संभव है। आत्मा भी, यदि हम सापेक्ष रूप से कहें, तो पिंजड़े में से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है। जो परिस्थितियाँ और आकार आत्मा को घेरे हुए हैं - शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक - उनके परिप्रेक्ष्य में आत्मा की यात्रा को समय में मापा जा सकता है। यदि आकार न हो, तो आत्मा अपने असीम स्वभाव में रहेगी। तब उसकी सर्वोच्च ऊँचाई से देखने पर समय का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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