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________________ ११८ जीवन का उत्कर्ष आपके बाहरी खोल। जब आपको अपना 'मैं' मिल जाएगा, तो आपको अपनी अनुपमता का भी एहसास हो जाएगा। ___ अपने 'मैं' को ढूंढ़ना स्वार्थ नहीं है, बल्कि अपनी आत्मा का आदर करना है। स्वयं को पाना अपने 'मैं' की अनुभूति एवं उसके प्रति आदर भाव है। अपने एकत्व में आप सब के प्रति एकत्व की अनुभूति को गहरा करेंगे। अब आप जानेंगे कि दूसरों को चोट पहुँचाने से आप स्वयं को ही चोट पहुँचा रहे हैं, और दूसरों की मदद करके आप स्वयं की मदद कर रहे हैं। अब आपको अपने अंतर में जो दिखाई देगा, उसे आप सभी जीवों में देखेंगे। जब 'मैं' की यह स्थिति प्रकट होती है, तो आपके लिए विसर्जन की स्थिति हो जाती है - सार्वभौमिक प्रेम और सभी जीवधारियों के प्रति सम्मान के महासागर में विसर्जन। चिंतन के बिंदु निर्जरा वह मार्ग है जिससे मैं अपने उन हालातों, व्यसनों और आदतों को गिरा सकूँ, तोड़ या छोड़ सकूँ जो मुझे बाँधे हुए हैं। मैं अपने आपको बढ़ने के लिए जगह देना चाहता हूँ। मैं अपने आपको सीमित करने वाली आदतों से मुक्त करना चाहता हूँ ताकि मैं अपनी पूर्ण ऊँचाई प्राप्त कर सकूँ। ___मैं क्या चाहता हूँ? क्यों चाहता हूँ? कितना चाहता हूँ? जो मुझे नहीं चाहिए, उसे अपने जीवन में आने नहीं दूंगा। मैं वही चाहता हूँ जो मुझे बढ़ने में मदद करे, जो मुझे अपने स्थायी सत्य की ओर ले जाए। ____ मैं हूँ मैं। मैं कोई और नहीं हो सकता। जहाँ भी जाऊँ, मैं अपने साथ जाता हूँ। धार्मिक व्रत बाहरी दबाव की उपज हैं। अनुशासन भीतरी जागरूकता से आते हैं, अंतर्मुखी दृष्टि से आते हैं। वे नदी के किनारों के समान हैं। यदि मैं अपने दोनों ओर के किनारों को स्थिर रखूगा, तो मैं अपनी ऊर्जा को जागरण और प्रेम के सागर के निरंतर प्रवाह में बहने के लिए मुक्त कर दूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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