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________________ आत्म-परिष्कार की कला ११७ स्वयं को इस गलती से बचाएँ । अपनी अद्वितीयता पहचानिए और कहिए, 'मैं हूँ मैं, मैं और कोई नहीं हो सकता । अन्य लोग मुझे स्वीकार करें या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं वही हूँ जो मैं हूँ।' जब आप वैसे बन जाते हैं जैसे आप हैं, आपके जीवन में एक स्वाभाविक बदलाव शुरू हो जाता है। आप सभी के साथ निर्भयता और निस्संकोच रूप से संप्रेषण करने लग जाते हैं। मैं इसी को 'मैं' से 'हम' को अलग करना कहता हूँ । जब 'मैं' में 'हम' घुल जाता है, तो 'मैं' एक विशाल महासागर में डूब जाता है। जब तक आप दूसरों से अपनी तुलना करना बंद नहीं करेंगे, अपने वास्तविक 'मैं' को कैसे पहचानेंगे? कितनी ही शैलियाँ, भाषाएँ, रीति-रिवाज हैं। क्या आप संसार भर में जितने 'हम' हैं, उन सबका अनुकरण करेंगे? आप कहीं-कहीं सफल भी हो जाएँ, लेकिन इतनी जगह कैसे सफल हो सकेंगे? ऐसा कब तक चलेगा? यदि सभी एक-दूसरे के जैसे बन जाएँगे तो मानवीय विविधता कहाँ रहेगी? यह महसूस करना बेहतर है कि, 'मैं जहाँ भी जाऊँगा, अपने साथ जाऊँगा। मैं अपनी अद्वितीयता के साथ जाऊँगा। हर जगह मैं अपनी रोशनी, अपने रंग, और अपनी अभिरुचि की छाप छोडूंगा।' यह अपने 'मैं' को स्वीकार करने की प्रक्रिया है। यह 'मैं' अकेले आया है और अकेले ही हर जगह जाएगा; अंततः आपको स्वयं के साथ रहना अच्छा लगेगा। साथ ही, आप सभी के साथ संपर्क रखेंगे। जब आप बाहरी खोलों को छोड़ देंगे, तब सृजनशील बन जाएँगे । इस प्रक्रिया के दौरान आप एक खोल को हटाते हैं, तो भीतर एक और खोल दिखाई देता है। तब आपको पता चलता है कि कुछ और हटाने के लिए बचा हुआ है। अंततः ऐसा भी समय आता है जब आपको हटाने के लिए कुछ नहीं मिलता। वही आप हैं । तब समझ जाइए कि आप अपने असली रूप तक पहुँच गए हैं। जब आप स्वयं को पा लेंगे, तो आपको विदित हो जाएगा, 'यह आत्मा अटूट है। सत्व कभी नष्ट नहीं होता।' आप केवल उसी को तोड़ सकते हैं जो भंगुर है, जो टूट जाता है - यानी आपके व्यसन, निर्भरताएँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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