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________________ कंपनों के अंतःप्रवाह पर चिंतन चौथा द्वार एक आंतरिक पाश है, जिसे अविरति कहते हैं - जीवन में जो चीजें आवश्यक हैं, उन्हें सीमित करने में विफल रहना। इस गलती को दूर करने के लिए साधक विरति का पालन करता है, वह प्रतिज्ञा लेता है कि वह अपनी संपदा को सीमित करेगा, अपनी आवश्यकताओं को सीमित करेगा। उदाहरण के लिए, वह भोजन को कम करने की प्रतिज्ञा ले सकता है। वह कह सकता है, 'आज मैं केवल तीन प्रकार का खाना ही खाऊँगा,' या 'आज मैं केवल दो बार खाऊँगा,' या 'आज मैं बिना नमक के स्वादरहित भोजन ही खाऊँगा'।। इससे पाचन तंत्र पर अत्यधिक बोझ नहीं पड़ता। हमारे शरीर को भोजन पचाने के लिए कम से कम तीन घंटे का समय चाहिए। यदि हम उसे इतना समय न देकर उसमें खाना भरते ही जाएँगे, तो पाचन तंत्र काम करना बंद कर देगा और उसमें भोजन बिना पचाए यूँ ही पड़ा रहेगा। उसे सब कुछ दुबारा करना पड़ेगा। यदि हम कम भोजन खाएँ, तो पाचन तंत्र ठीक तरह से काम करेगा और हमें अपचन नहीं होगा। इसके साथ ही, शरीर को ठंडा रखने के लिए और कब्ज से बचने के लिए दिन में आठ से दस बार तरल पदार्थों का सेवन करना चाहिए। इस तरह सुविचारित रूप से संतुलित भोजन करेंगे, तो स्वाद बिंदुओं को नियंत्रण में रख सकते हैं, इच्छाओं को कम कर सकते हैं और अपने स्वास्थ्य को बनाए रख सकते हैं। किसी भी मार्ग का अंधाधुंध अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है। आप साधु के जीवन का अनुकरण करने के लिए बाधित नहीं हैं। सब कुछ अपने परिवेश के अनुकूल करें। आपको स्वयं को ढालना और बदलना चाहिए, न कि किसी ऐसे मार्ग का अंधानुकरण करना जो किसी अन्य जलवायु के लिए, अन्य परिवेश के लिए या अन्य काल के लिए उपयुक्त रहा हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आप अपनी आवश्यकताओं को कम करने की ओर सचेत रहें। उदाहरण के लिए, आप अपनी संपत्ति को सीमित करने का निर्णय ले सकते हैं। स्वयं के साथ एक अनुबंध कर लें, 'मैं केवल इतने से संतुष्ट रहूँगा'। अन्यथा मन न सिर्फ अपनी ज़रूरतों को, मगर अपनी हर इच्छा को भी उचित समझेगा। जीवन के अंत तक कमाने की ज़रूरत नहीं है। जब आप सीमा बांधते हुए कहते हैं, 'बस इतना पर्याप्त है, तब आप अपने समय को आध्यात्मिक कार्यों में या सेवा में बिता सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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