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________________ ८६ जीवन का उत्कर्ष बात पक्की हो गई, मित्र बहुत खुश हुआ। पहले दो-तीन घंटे तक वह बैठे-बैठे सोचता रहा, 'सब चीज़ों का बंदोबस्त हो गया है। मुझे किराया चुकाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।' ___ और वह उस मंत्र का उच्चारण करने लगा। चार घंटे और बीत गए। वह वहाँ बैठे-बैठे थक गया और ऊबने लगा। वह सोचने लगा, 'मैं कर क्या रहा हूँ? वही शब्द, बार-बार वही शब्द! खैर, जो कड़ी मेहनत मुझे पहले करनी पड़ती थी, उसकी तुलना में यह बुरा भी नहीं है!' और वह मंत्र का उच्चारण करता रहा। एक दिन बीत गया। 'सोहम् सोहम्,' वह मंत्र को दोहराता रहा। 'कितना नीरस शब्द है! कोई सुर नहीं, कोई ताल नहीं, कोई उत्तेजना नहीं! यह क्या है?' वह खिड़की के पास बैठा था जहाँ उससे बात करने के लिए कोई नहीं था, उसके चुटकुले सुनने के लिए कोई नहीं था। भोजन भी अकेले ही करता था। तीसरे ही दिन उसे बहुत भारीपन महसूस होने लगा। चौथे दिन सुबह जब वह उठा तो उसने अपने आपसे कहा, 'मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता, मैं पागल हो जाऊँगा।' उसकी अवचेतना से विचार उभरकर आने लगे, एक के बाद एक। वह सोचने लगा कि उसने किस तरह का जीवन जीया है, किस तरह लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया है, कितने झूठ बोले हैं। हर चीज़ बढ़चढ़कर उसके मस्तिष्क में आने लगी। निःशब्दता में यही होता है - चीजें अपने आकार-प्रकार से बड़ी दिखने लगती हैं। जब आपको ज्यादा गरमी लग रही हो, तो आप अपने कपड़े उतार सकते हैं। मगर जब विचारों के सैलाब के कारण आपका दम घुटने लगे, तो आप क्या करेंगे? कपड़े बदलना आसान है, पर विचारों को बदलना कितना कठिन है! विचार इतने गहरे पैठ जाते हैं कि कभी-कभी वे कांटों के समान लगते हैं, और हमें पीड़ा पहुँचाते हैं। यह व्यक्ति स्वयं का सामना करने के लिए तैयार नहीं था। जिस चीज़ का सामना करने के लिए लोग तैयार नहीं है, उन्हें ढके रखने के लिए उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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