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________________ कंपनों के अंतःप्रवाह पर चिंतन करने के लिए या स्वयं से बचने के लिए?' यदि आप अपने आपसे बचने के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं, तो आप अपनी चिंताओं को सर्वत्र ले जा रहे हैं। जहाँ भी आप जाते हैं, उन रिश्तों में बेचैनी पैदा कर रहे हैं। स्वयं से अलग एक सुखी, सुरक्षित जगह खोजने की कितनी भी कोशिश कर लें, आप अपनी बेचैनी से बच नहीं पाएंगे। सबसे कठिन बात यही है - स्वयं के संग निश्चिंत रहना ताकि सभी के साथ निश्चिंत रह सकें। एक बार एक व्यक्ति ने मौन धारण किया और साधना करने लगा। उसके मित्रों ने देखा और उसका मजाक उड़ाने लगे, 'यह क्या कर रहा है?' उन्होंने हँसते हुए कहा। 'यह दिन भर बैठा रहता है, करता कुछ नहीं। ऐसा तो हम भी आराम से कर सकते हैं।' जब साधक ने यह बात सुनी, तो उसने पूछा, 'क्या तुम समझते हो कि ऐसे रहना आसान है? अपने आप में बस ऐसे ही रहना?' 'हाँ हाँ,' एक मित्र ने कहा, 'तुम्हें इसके लिए कुछ नहीं करना पड़ता है। मेरे ऊपर कई ज़िम्मेदारियाँ हैं - काम पर जाना है, किराया चुकाना है, मकान की देखभाल करनी है। यदि तुम मेरी जगह ले लो, तो मैं मज़े से तुम्हारी तरह बैठा रहूँगा।' 'अच्छी बात है,' साधक ने कहा, 'मैं तुम्हारे खाने-पीने की व्यवस्था करूँगा, तुम्हारा किराया चुका दूंगा और वह सब कुछ कर दूंगा जो तुम्हें आमतौर पर करना पड़ता है। मैं एक महीने तक ऐसा करूँगा। तुम्हें बस अपने साथ रहना है।' मित्र ने कहा, 'यह तो बहुत आसान है। लेकिन इसके बदले मुझे क्या करना होगा?' _ 'कुछ भी नहीं,' साधक ने कहा। 'करने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं तुम्हें एक शब्द देता हूँ - सोहम्। तुम्हें इस शानदार बंगले में रहना है और बस इस एक शब्द को जपना है।' __ 'बस? केवल इस एक शब्द का उच्चारण करता रहूँ?' . 'हाँ, बस इतना ही।' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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