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प्राक्कथन विद्वत पाठक जन, सर्वसिद्धान्त अर्थात् सभी (भारतीय) दर्शनों को बताने वाला सर्वसिद्धान्त प्रवेशक नामक यह ग्रन्थ आपके सामने प्रस्तुत है। जैसलमेर ग्रन्थालय में विद्यमान ताड़पत्र पर लिखित इस ग्रन्थ की दो प्रतियों के आधार पर यह ग्रन्थ सम्पादित हुआ है। इन प्रतियों में कर्ता का नाम अज्ञात है, क्योंकि ताड़पत्र पर लिखी गई इन प्रतियों में ग्रन्थकार ने अपने नाम का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी प्रारम्भिक पद के अनुसार जैन मुनि ही इस ग्रन्थ के रचियता हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ की पूर्ण समीक्षा करने पर ग्रन्थकार का काल आचार्य हरिभद्र के पश्चात् अर्थात् विक्रम की आठवीं शती के पश्चात् और बारहवी शताब्दी के पूर्व माना सकता है। इस ग्रन्थ में उस काल के प्रधान एवं प्रसिद्ध दर्शनों यथा - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, जैन, मीमांसा और लोकायत का उन-उन दर्शनों के प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार वर्णन किया गया है। यद्यपि दर्शनों का वर्णन संक्षिप्त है, फिर भी जिज्ञासुओं के लिए बहुत उपयोगी है।
भारत एक धर्मप्रधान देश है, इसलिये चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों का लक्ष्य सदैव सत्य का साक्षात्कार या मोक्ष की प्राप्ति रहा है। इसी कारण भारतीय तत्त्वज्ञान की अवधारणाओं को विवाद या तर्क का विषय न मानकर अनुभूति का विषय माना गया है और इसके लिए दर्शन (साक्षात्कार) जैसे उच्च कोटि के यथार्थ अनुभव प्रधान शब्द का प्रयोग किया गया है। दर्शन शब्द का अर्थ साक्षात्कार है। अतः जो सत्य का साक्षात्कार या आत्मा का साक्षात्कार करता है या मोक्ष के मार्ग को बताता है, उसी का नाम दर्शन है। इसके अतिरिक्त चर्चा मात्र वाणी का विलास है या विद्वानों के मनोरंजन का साधन है। भारतीय तत्त्व ज्ञान का ऐसा आध्यात्मिक दृष्टिकोण होने के कारण ही इस देश में “सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात विद्या वही है, जो मुक्ति का हेतु है तथा "ज्ञानस्य फलं विरतिः" अर्थात ज्ञान का फल पाप से निवृत्त होना है, इत्यादि, सूत्र व्यापक प्रचार में आये हैं।
आत्म साक्षात्कार राग-द्वेषमोह से रहित समदृष्टि के बिना नहीं हो सकता है। समदृष्टि से अवलोकन करने वाले ज्ञानी पुरूष को वस्तु के जो जो स्वरूप दिखाई देते हैं, उन सभी स्वरूपों को ग्रहण करता है। एक ही स्वरूप का ऐकान्तिक आग्रह कभी नहीं करता है।
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