SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना भिन्धि हः हः हाः हाः हेः हे: हुं फट् फट् घे घे म्ल्यू झाँ झी झू झौं क्षः स्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्वं बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, भल्यूँ भ्राँ भ्री भू भौं भ्रः ताडय ताडय, म्म्ल्यूँ माँ म्री पूँ नौं म्रः नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, म्यूँ प्रॉ प्रीं | प्रौं प्रः प्रेषय प्रेषय, म्ल्यूँ घाँ घ्री |ौँ घ्रः जठरं भेदय भेदय, इझ्ल्यूँ झाँ झी झू झों झः मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, ख्खल्व्यू खाँ खी खू खे खाँ खः ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छम्ल्व्यूँ छाँ छीं छू छौँ छ: अन्तराणि छेदय छेदय, ठम्ल्व्यूँ ट्रां ह्रीं दूँ ह्राँ ट्रः महाविद्यापाषाणास्त्रैः हन हन, म्ल्व्यूँ ब्राँ श्री बौँ ब्रः समुद्रे! जृम्भय जृम्भय, औौं झः घाँ डाँ घ्रः सर्वडाकिनीः मर्दय मर्दय, सर्वयोगिनीः तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् ग्रस ग्रस, खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय सर्वमृत्यून् नाशय नाशय, सर्वोपद्रव महाभय स्तम्भय स्तम्भय, दह २ पच २ मथ २ ययः २ धम २ धरू २ खरू २ खङ्गरावणसुविद्या घातय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू२ हरू २ फट् २ घेः हाँ हाँ आँ क्रीँ क्ष्वीं ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्रां द्रीं क्राँ क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ।।इति सर्वरोगहरस्तोत्रम् ।। (श्री भैरवपद्मावतीकल्प ज्वालामालिनीमन्त्रस्तोत्रम्, परिशिष्ट २५, पृष्ठ १०२-१०३) । इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा ने किन्हीं स्थितियों में हिन्दू तान्त्रिक परम्परा का अन्धानुकरण भी किया है और अपने पूजा विधान में ऐसे तत्त्वों को स्थान दिया है, जो उसकी आध्यात्मिक, निवृत्तिप्रधान और अहिसंक दृष्टि के प्रतिकूल हैं, फिर भी इतना अवश्य है कि इस प्रकार पूजा विधान तीर्थंकरों से सम्बन्धित न होकर प्रायः अन्य देवी देवताओं से ही सम्बन्धित है। प्रस्तुत स्तोत्र की भी यही विशेषता है कि इसके प्रारम्भ में जिनेन्द्र की स्तुति करते हुए उनसे आध्यात्मिक विकास की कामना की गई है। लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति की कामना अथवा मारण, मोहन, वशीकरण आदि की सिद्धि की कामना तो मात्र उनकी शासन देवी ज्वालामालिनी से की गई है। इस प्रकार. हम देखते हैं कि परवर्ती जैनाचार्यों ने भी तीर्थंकर-पूजा का प्रयोजन तो आत्मविशुद्धि ही माना है, किन्तु लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए यक्ष-यक्षी, नवग्रह, दिक्पाल एवं क्षेत्रपाल (भैरव) की पूजा सम्बन्धी विधान भी निर्मित किये हैं। यद्यपि ये सभी पूजाविधान हिन्दू परम्परा से प्रभावित हैं और उनके समरूप भी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy