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________________ ५५ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान षडावश्यकों के स्थान पर निम्न षट् दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी - जिनपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान । हमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में जिनपूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों-स्थानांग आदि में जिन प्रतिमा एवं जिनमन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं पूजन के उल्लेख हैं । राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनप्रतिमा-पूजन एवं जिन के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि के जो उल्लेख हैं, वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती है और गुप्तकाल के पूर्व के नहीं हैं। चाहे 'राजप्रश्नीय' का प्रसेनजित्-सम्बन्धी कथा पुरानी हो, किन्तु सूर्याभदेव सम्बन्धी कथा प्रसंग में जिनमन्दिर के पूर्णतः विकसित स्थापत्य के जो संकेत हैं, वे उसे गुप्तकाल से पूर्व का सिद्ध नहीं करते हैं। फिर भी यह सत्य है कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन उल्लेख श्वे० परम्परा के आगम साहित्य में अन्यत्र नहीं है । दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी रयणसार में दान और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना है, वे लिखते हैं दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेण विणा । झाणज्झयणं मुक्ख जइ धम्मे ण तं विणा सो वि ।। रयणसार ६०, अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों में दान और पूजा मुख्य और यति / श्रमण के कर्तव्यों में ध्यान और स्वाध्याय मुख्य हैं। इस प्रकार उसमें भी पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्त्तव्य के रूप में प्रधानता मिली। परिणामतः गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना । प्रथम तो पूजा को कृतिकर्म (सेवा) का एक रूप माना गया, किन्तु आगे चलकर उसे अतिथिसंविभाग का अंग बना दिया गया। दिगम्बर परम्परा में भी जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्द रचित 'दस भक्तियों में एवं यापनीय परम्परा में मूलाचार के षडावश्यक अध्ययन में मिलता है। जैन शौरसेनी में रचित इन सभी भक्तियों के प्रणेता कुन्दकुन्द हैं - यह कहना कठिन है, फिर भी कुन्दकुन्द के नाम से उपलब्ध भक्तियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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