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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना ५४
_ सूत्रकृतांग में महावीर की जो स्तुति उपलब्ध होती है, वह सम्भवतः जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीय में हमें वीरासन से शक्रस्तव (नमोत्थुण) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा है वह इसी 'नमोत्थुणं' का संस्कृत रूप है। दुर्भाग्य से दिगम्बर परम्परा में यह प्राकृत का सम्पूर्ण पाठ सुरक्षित नहीं रह सका। चतुर्विंशतिस्तव का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है इसे लोगस्स' का पाठ भी कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में भी उपलब्ध है। तीन आवों के द्वारा ‘तिक्खुत्तो' के पाठ से तीर्थंकर, गुरु एवं मुनि-वंदन की प्रक्रिया भी प्राचीनकाल में प्रचलित रही है। अनेक आगमों में तत्सम्बन्धी उल्लेख हैं। श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तिखुत्तो के पाठ का ही एक परिवर्तित रूप हमें षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार के २८वें सूत्र में मिलता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए दोनों पाठ विचारणीय हैं। गुरुवंदन के लिए 'खमासमना' के पाठ की प्रक्रिया उसकी अपेक्षा परवर्ती है। यद्यपि यह पाठ आवश्यक जैसे अपेक्षाकृत प्राचीन आगम में मिलता है फिर भी इसमें प्रयुक्त क्षमाश्रमण या क्षपकश्रमण (खमासमणो) शब्द के आधार पर इसे चौथी, पांचवीं शती के लगभग का माना जाता हैं। क्योंकि तब से जैनाचार्यों के लिए 'क्षमाश्रमण' पद का प्रयोग होने लगा था। गुरुवंदन पाठों से ही चैत्यों का निर्माण होने पर चैत्यवंदन का विकास हुआ और चैत्यवंदन की विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे गये हैं।
जिनपूजा विधि का विकास
इसी स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिन पूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्त्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है। वस्तुतः वैदिक यज्ञ-याग परक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजाविधि का विकास हुआ था और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का । यक्षपूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। फिर इसी भक्तिमार्गीधारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मो पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामतः सर्वप्रथम स्तूप, चैत्य-वृक्ष आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई फिर सिद्धायतन (जिनमन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन प्रतिमाओं की पूजा होने लगी। फलतः जिन पूजा एवं दान को गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना गया। दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन
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