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________________ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना ३० हैं कि " २४ यक्षों एवं २४ यक्षियों की सूची में अधिकांश के नाम एवं उनकी लाक्षणिक विशेषताएँ हिन्दू और कुछ उदाहरणों में बौद्ध देवकुलों से प्रभावित हैं । जैन धर्म में हिन्दू देवकुल के विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, स्कन्द, कार्तिकेय, काली, गौरी, सरस्वती, चामुण्डा और बौद्ध देवकुल की तारा, वज्रश्रृंखला, वज्रतारा एवं वज्राकुंशी के नामों और लाक्षणिक विशेषताओं को ग्रहण किया गया। जैन देवकुल पर ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के देवों के प्रभाव दो प्रकार से हैं- प्रथम जैनों ने इतर धर्मों के देवों के केवल नाम ग्रहण किये और स्वयं उनकी स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएं निर्धारित कीं। गरुड़, वरुण, कुमार आदि यक्षों और गौरी, काली, महाकाली, अम्बिका एवं पद्मावती आदि यक्षियों के सन्दर्भ में प्राप्त होने वाला प्रभाव इसी कोटि का है। द्वितीय, जैनों ने देवताओं के एक वर्ग की लाक्षणिक विशेषताएँ भी इतर धर्मों के देवों से ग्रहण की। कभी-कभी लाक्षणिक विशेषताओं के साथ ही साथ इन देवों के नाम भी हिन्दू और बौद्ध देवों से प्रभावित हैं । इस वर्ग में आने वाले यक्ष-यक्षियों में ब्रह्मा, ईश्वर, गोमुख, भृकुटि, षण्मुख, यक्षेन्द्र, पाताल, धरणेन्द्र एवं कुबेर यक्ष और चक्रेश्वरी, विजया, निर्वाणी, तारा एवं वज्रश्रृंखला यक्षियां प्रमुख हैं। यह स्पष्ट है कि आगम साहित्य और उन पर छठीं -सातवीं शताब्दी तक लिखी गई निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों में तथा पउमचरियं जैसे पाँचवी-छठीं शती के पूर्व के प्राचीन काव्यों में तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षियों के नाम और उनकी उपासना संबंधी विवरण अनुपलब्ध है। अगमों में जो यक्षपूजा के उल्लेख उपलब्ध है, वे वस्तुतः जैन धर्म से सम्बन्धित नहीं है। जैसा कि पूर्व में निर्दिष्ट हैं, सर्वप्रथम तिलोयपण्णत्ति में चौबीस तीर्थंकरों में २४ यक्ष-यक्षियों का निरूपण हुआ है। चाहे इस अंश को प्रक्षिप्त न भी मानें तो भी इतना निश्चित सत्य है कि जैन धर्म में शासन देवता के रूप में यक्ष-यक्षियों की उपासना लगभग छठी शती से ही प्रारम्भ हुई है। इसके पूर्व के साहित्यक साक्ष्यों और पुरातात्त्विक अवशेषों में इनके सम्बन्ध में कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि लगभग आठवीं शती में २४ तीर्थंकरों के २४ यक्ष और २४ यक्षियों की पूरी सूची बन गई थी। क्योंकि जिनसेन परोक्ष रूप से इसका निर्देश करते हैं । प्रारम्भ में सर्वानुभूति ( यक्षेश्वर) और अम्बिका का निरूपण ही प्रमुख रूप से हुआ है। जिनसेन (आठवीं शती) ने अप्रतिचक्रा अर्थात् चक्रेश्वरी एवं अम्बिका का उल्लेख किया है (हरिवंशपुराण ६६ / ४४० ) । बप्पभट्टसूरि (नवीं शती) ने सर्वानुभूति ( यक्षराज ) और अम्बिका की लाक्षणिक विशेषताओं का निरूपण अपने ग्रंथ चतुर्विंशतिका (२३ / ९२ ) में किया है। पुष्पदन्त के महापुराण (दशवीं शती) में चक्रेश्वरी अम्बिका के साथ-साथ सिद्वायिका, गौरी, गान्धारी आदि के भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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