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जैन धर्म और तांत्रिक साधना सो पुनचंदसूरीण संमयं लहइ सिवसुक्खं ।।१५।। इति विद्यागभितं लब्धिस्तोत्रं समाप्तम् ।।
संतिकरथवणं।
-मुनि सुन्दर संतिकरं संतिजिणं जगसरणं जयसिरीई दायारं | समरामि भत्त-पालग-निव्वाणी-गरुडकयसेवं ।।१।। 'ॐ सनमो विप्पो सहिपत्ताणं संतिसामिपायाणं । 'झैाँ स्वाहा' मंतेणं सव्वासिवदुरिअहरणाणं ।।२।। 'ॐ संति-नमुकारो खोलो सहिमाइलद्धि पत्ताणं । सौँ ह्रीं नमो सव्वोसहिपत्ताणं च देइ सिरिं'।।३।। वाणी-तिहुअणसामिणि सिरिदेवी-जक्खराय-गणिपिडगा। गह-दिसिपाल-सुरिंदा सया वि रक्खंतु जिणभत्ते।।४।। रक्खंतु मम रोहिणी-पन्नत्ती वज्जसिंखला य सया। वज्जंकुसि-चक्केसरि-नरदत्ता-कालि-महकाली ।।५।। गोरी तह गंधारी महजाला माणवी अ वइरुट्ठा। अच्छुत्ता माणसिआ महमाणसिया उ देवीओ।।६।। जक्खा गोमुह–महजक्ख-तिमुह-जक्खेस-तुंबरू कुसुमो। मायंग-विजय-अजिआ बंभो मणुओ सुरकुमारो।।७।। छम्मुह पयाल किन्नर गरुडो गंधव्व तह य जक्खिदो। कुबर वरुणो भिउडी गोमेहो पास-मायंगा।।८।। देवीओ चक्केसरि-अजिआ-दुरिआरि–कालि-महकाली। अच्चुय-संता-जाला सुतारया सोय-सिरिवच्छा।।६।। चंडा विजयंकुसि-पन्नइत्ति-निव्वाणि-अच्चुआ-धरणी। वइरुट्ट-छुत्त-गंधारि-अंब-पउमावई सिद्धा ।।१०।। इय तित्थरक्खणरया अन्ने वि सुरा सुरीउ चउहा वि। वंतर-जोइणिपमुहा कुणंतु रक्खं सया अम्हं ।।११।। एवं सुदिट्ठिसुरगणसहिओ संघस्स संतिजिणचंदो। मज्झ वि करेउ रक्खं मुणिसुंदरसूरि थुअ-महिमा ।।१२।। इअ संतिनाहसम्मद्दिट्ठियरक्खं सरइ तिकालं जो।
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