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________________ १५ तन्त्र-साधना और जैन जीवनदृष्टि के पुरुषार्थ से मिलती है, किसी की कृपा से नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों ने ज्ञान की उपलब्धि को भी साधना से जोड़ा है। उनके अनुसार उच्चस्तरीय ज्ञान केवल सहज उपलब्धि नहीं है। विशिष्ट ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक ओर कर्म आवरण का क्षयोपशम आवश्यक है तो दूसरी ओर उस क्षयोपशम के लिए विशिष्ट साधना भी आवश्यक है। जैन परम्परा में आगमों के अध्ययन के लिए विशिष्ट प्रकार का उपधान या तप करना होता है। किस आगम का अध्ययन करने के लिए कौन कब और कैसे अधिकारी होता है इसकी विस्तृत चर्चा जैन साहित्य में उपलब्ध होती है। जैन परम्परा में ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु का दिशानिर्देश तो अपनी जगह है ही, किन्तु तप साधना भी आवश्यक है। इस प्रकार उन्होंने ज्ञान को तप से या साधना से समन्वित किया है। इस प्रकार तन्त्रदर्शन के परिप्रेक्ष्य में जैन तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा की चर्चा के पश्चात् अब हम इस तथ्य पर विचार करेंगे कि जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के कौन से तत्त्व किन-किन रूपों में उपस्थित हैं? और उनका उद्भव एवं विकास कैसे हुआ? जैनधर्म में तान्त्रिक साधना का उदभव एवं विकास यदि तन्त्र का उद्देश्य वासना-मुक्ति और आत्मविशुद्धि है तो वह जैनधर्म में उसके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई है। किन्तु यदि तन्त्र का तात्पर्य व्यक्ति की दैहिक वासनाओं और लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देवता-विशिष्ट की साधना कर उसके माध्यम से अलौकिक शक्ति को प्राप्त कर या स्वयं देवता के माध्यम से उन वासनाओं और आकंक्षाओं की पूर्ति करना माना जाय तो प्राचीन जैन धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। इसे हम प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर चुके हैं। यद्यपि जैन आगमों में ऐसे अनेकों सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं, जिनके अनुसार उस युग में अपनी लौकिक एषणाओं की पूर्ति के लिए किसी देव-देवी या यक्ष-यक्षी की उपासना की जाती थी। अंतगड़दसाओ आदिआगमों में नैगमेषदेव के द्वारा सुलसा और देवकी के छ: सन्तानों के हस्तांतरण की घटना, कृष्ण के द्वारा अपने छोटे भाई की प्राप्ति के लिए तीन दिवसीय उपवास के द्वारा नैगमेष देव की उपासना करना अथवा बहुपुत्रिका देवी की उपासना के द्वारा सन्तान प्राप्त करना आदि अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, किन्तु इस प्रकारकी उपासनाओं को जैनधर्म की स्वीकृति प्राप्त थी, यह कहना उचित नहीं होगा। प्रारम्भिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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