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________________ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना १४ है । वह अनुभूति को सर्वाधिक महत्त्व देता है। जैनदर्शन भी अनुभूतिपरक है। वह ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को अर्थात् अनुभूति को अधिक महत्त्व देता है, क्योंकि अनुभूति के अभाव में ज्ञान की संभावना ही नहीं बनती है। अनुभूतियों के दो स्तर हैं- एक ऐन्द्रिक एवं मानसिक अनुभूति का और दूसरा आत्मिक (आध्यात्मिक) अनुभूति का । जैनदर्शन में इन्द्रियजन्य और मानसजन्य अनुभूति का स्तर सबसे निम्न माना गया है। यही कारण रहा है कि प्राचीन जैन आचार्यों ने इन्द्रियजन्य • और मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष न मानकर परोक्ष ही माना। (तत्त्वार्थसूत्र १/११) यद्यपि परवर्ती जैन आचार्यों ने लोकमत का अनुसरण करते हुए इन्द्रियजन्य और मनोजन्य प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का दर्जा तो दिया, किन्तु उसे सदैव आत्मिक प्रत्यक्ष से निम्न माना । उनके अनुसार अतीन्द्रिय ज्ञान या आत्मिक ज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जो वरेण्य है। जैन ज्ञानमीमांसा की दृष्टि से यह अतीन्द्रिय ज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन तीनों भागों में विभक्त है। इसमें भी जैन साधना का अन्तिम लक्ष्य तो सदैव ही केवलज्ञान रहा है । केवलज्ञान वस्तुतः निरावरण ज्ञान है, सकलज्ञान है और यह तभी सम्भव होता है जब चित्शक्ति आत्मा के अनन्तचतुष्टय का घात करने वाली कर्मशक्ति के पाश से मुक्त हो जाती है। जैनों के अनुसार अनुभूत्यात्मक आत्मिक ज्ञान ही सर्वोपरि है और उसकी दृष्टि में यही तृतीय नेत्र का उद्घाटित होना है, किन्तु वह ज्ञान ऐसा है जिसका हस्तांतरण संभव नहीं होता है, हस्तांतरण तो केवल श्रुतज्ञान का ही होता है । यह अनुभूत्यात्मक ज्ञान स्वयं के आध्यात्मिक विकास से या साधना ही पाया जाता है। गुरु इसमें मार्गदर्शक तो हो सकता है किन्तु उस ज्ञान का प्रदाता नहीं। जैनदर्शन के अनुसार अवधि, मनः पर्यय और केवल इन तीनों आत्मिक ज्ञानों की प्राप्ति मानव-जीवन में सम्भव तो है किन्तु मनुष्य जीवन में ये सहज न होकर साधनाजन्य ही हैं । अवधिज्ञान दूरस्थ भौतिक पदार्थों का अलौकिक या अतीन्द्रिय ज्ञान है, तो मन:पर्यय दूसरे के मनोभावों या विचारों को जानने की शक्ति है । किन्तु इन दोनों की उपलब्धि हेतु भी साधना आवश्यक है। जैनदर्शन में साधना के क्षेत्र में उपास्य और गुरु का स्थान तो है, किन्तु वे क्रमशः आदर्श एवं मार्गदर्शक ही हैं। आध्यात्मिक अनुभूति और कैवल्य की प्राप्ति अन्ततः व्यक्ति के अपने आध्यात्मिक विकास से ही संभव है । यह उच्चस्तरीय आत्मिक बोधन तो गुरुकृपा से ही सम्भव है न दैवीय कृपा से । क्योंकि जैनदर्शन | में दैवीय कृपा (grace of God) और गुरुकृपा को कोई स्थान नहीं है क्योंकि उसमें कर्म का नियम सर्वोपरि है। जैनदर्शन में मार्ग दर्शक के रूप में गुरु का महत्त्व तो है, किन्तु गुरु कृपा का नहीं । उसका सिद्धान्त है कि सिद्धि तो स्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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