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________________ ३२७ जैनधर्म और तांत्रिक साधना मां रक्ष रक्ष हिलि हिलि मातङ्गिनी स्वाहा। -इति सकलीकरण मन्त्राः ।। इस प्रकार बीजाक्षरों से निर्मित मन्त्र के द्वारा तथा पञ्चपरमेष्ठि नमस्कारमंत्र के द्वारा सकलीकरण करने की परम्परा जैन ग्रन्थों में देखी जाती है। इनमें बीजाक्षरों से निर्मित मन्त्र से सकलीकरण करने की परम्परा को जैनों ने अन्य तान्त्रिक धाराओं से गृहीत किया है, जबकि पञ्चपरमेष्ठि या तीर्थंकरों के नामों से न्यास एवं सकलीकरण की परम्परा जैन आचार्यों ने स्वयं विकसित की है। फिर भी इसका प्रारूप तो अन्य तान्त्रिक परम्पराओं से प्रभावित है ही क्योंकि न्यास और सकलीकरण की सम्पूर्ण अवधारणा हिन्दू तन्त्र से ही जैन धर्म में आई है। न्यास की प्रस्तुत प्रक्रिया में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या पञ्चमरमेष्ठि या तीर्थंकर इस प्रकार न्यास कर लेने पर रक्षा करते है? जैन परम्परा में तीर्थंकर वीतराग होता है। वह सन्मार्ग का पथ प्रदर्शक होता है धर्मतीर्थ का संस्थापक होता है, किन्तु हिन्दू परम्परा के ईश्वर के अवतार की तरह वह न तो सज्जनों का रक्षक है और न दुष्टों का संहारक है, फिर जैनधर्म में उनके नाम के न्यास और उनसे अङ्गरक्षा या आत्मरक्षा की अभ्यर्थना का क्या अर्थ है? यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि जैन धर्म मूलतः आध्यात्मिक एवं निवृत्ति प्रधान है। उसकी संस्कृति उत्सर्ग या त्याग की संस्कृति हैं। अतः न्यास द्वारा देहरक्षण या आत्म रक्षण के विधि विधान उसके अपने मौलिक नहीं है। उन्होंने इसे हिन्दू तन्त्र साधना से गृहीत किया है। जैनाचार्यों का इस रक्षा विधान में मौलिक अवदान इतना ही है कि उन्होंने इन मन्त्रों में हिन्दू देवी देवताओं के स्थान पर पञ्चपरमेष्ठि एवं तीर्थंकरों के नामों की योजना की । न्यास के प्रयोजन एवं सार्थकता के सन्दर्भ में जैन आचार्यों की मान्यता यही है कि चाहे तीर्थंकर स्वयं तटस्थ या निरपेक्ष हो, किन्तु उनसे सम्बन्धित मन्त्र स्वतः या मन्त्राधिष्ठित देवता द्वारा या जिन शासन रक्षक देवता द्वारा रक्षा करते हैं। व्यक्तिगत रूप में मेरी मान्यता तो यह है कि न्यास द्वारा व्यक्ति में यह आत्म विश्वास जागृत होता है कि कोई मेरा रक्षक है। यही दृढ़ आत्म विश्वास या श्रद्धा ही उसका रक्षा कवच बनता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से न्यास आत्म विश्वास जागृत करने या मनोबल को दृढ़ बनाने की एक प्रक्रिया है। व्यक्ति की सफलता का कारण मन्त्र या देवता नहीं, उसका दृढ़मनोबल ही होता है। कहा भी है- मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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