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ध्यान साधना और जैनधर्म
(३) रूपस्थ ध्यान- इस ध्यान में साधक अपने मन को अर्हं पर केन्द्रित करता है अर्थात् उनके गुणों एवं आदर्शों का चिन्तन करता है । अर्हत के स्वरूप का अवलम्बन करके जो ध्यान किया जाता है वह ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है । रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि विकारों से रहित समस्त गुणों, प्रतिहार्यों एवं अतिशयों से युक्त जिनेन्द्रदेव का निर्मल चित्त से ध्यान करता है। वस्तुतः यह सगुण परमात्मा का ध्यान है ।
(४) रूपातीत ध्यान- रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञान स्वरूप एवं आनन्दस्वरूप सिद्ध परमात्मा का स्मरण करना। इस अवस्था में ध्याता ध्येय के साथ एकत्व की अनुभूति करता है । अतः इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है।
इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः भौतिक तत्त्वों या शरीर, मातृकापदों, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमश सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह
जाता ।
जैनधर्म में ध्यान साधना का विकासक्रम
जैन धर्म में ध्यान साधना की परम्परा प्राचीनकाल से ही उपलब्ध होती है । सर्वप्रथम हमें आचारांग में महावीर के ध्यान साधना संबंधी अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। आचारांग के अनुसार महावीर अपने साधनात्मक जीवन में अधिकांश समय ध्यान साधना में ही लीन रहते थे ।" आचारांग से यह भी ज्ञात होता है कि महावीर ने न केवल चित्तवृत्तियों के स्थिरीकरण का अभ्यास किया था, अपितु उन्होंने दृष्टि के स्थिरीकरण का भी अभ्यास किया था । इस साधना में वे अपलक होकर दीवार आदि किसी एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित करते थे । इस साधना में उनकी आंखें लाल हो जाती थीं और बाहर की ओर निकल आती थीं जिन्हें देखकर दूसरे लोग भयभीत भी होते थे । आचारांग के ये उल्लेख इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि महावीर ने ध्यान साधना की बाह्य और आभ्यन्तर अनेक विधियों का प्रयोग किया था । वे अप्रमत्त (जाग्रत) होकर समाधिपूर्वक ध्यान करते थे। ऐसे भी उल्लेख उपलब्ध होते हैं कि महावीर के शिष्य- प्रशिष्यों में भी यह ध्यान साधना की प्रवृत्ति निरन्तर बनी रही। उत्तराध्ययन में मुनिजीवन की दिनचर्या का विवेचन करते हुए स्पष्ट रूप से निर्देश दिया गया है कि मुनि दिन और रात्रि के द्वितीय प्रहर में ध्यान साधना करे । महावीरकालीन साधकों के ध्यान की कोष्ठोपगत विशेषता आगमों में उपलब्ध होती है । यह इस बात
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