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________________ २९१ जैनधर्म और तांत्रिक साधना तथा अतीन्द्रिय होती है। इसी ज्योति का नाम ही आत्मज्योति है तथा इसी से साधक को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रणव नामक ध्यान में अहँ के स्थान पर 'ॐ' पद का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान का साधक योगी सर्वप्रथम हृदयकमल में स्थित कर्णिका में इस पद की स्थापना करता है तथा वचन-विलास की उत्पत्ति के अद्वितीय कारण, स्वर तथा व्यंजन से युक्त, पंचपरमेष्ठि के वाचक, मूर्धा में स्थित चंद्रकला से झरनेवाले अमृत के रस से सराबोर महामंत्र प्रणव (ॐ) श्वास को निश्चल करके कुम्भक द्वारा ध्यान करता है। इस ध्यान की विशेषता यह है कि स्तम्भन कार्य में पीत, वशीकरण में लाल, क्षोभन में मूंगे के रंग के समान, विद्वेष में कृष्ण, कर्मनाशन अवस्था में चंद्रमा की प्रभा के समान उज्ज्वल वर्ण का ध्यान किया जाता है। हेमचन्द्र के अनुसार पंचमरमेष्ठि नामक ध्यान में प्रथम हृदय में आठ पंखुड़ीवाले कमल की स्थापना करके कर्णिका के मध्य में सप्ताक्षर 'अरहताणं' पद का चिन्तन किया जाता है। तत्पश्चात् चारों दिशाओं के चार पत्रों पर क्रमशः 'णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं तथा णमो लोए सव्वसाहूणं' का ध्यान किया जाता है तथा चार विदिशाओं के पत्रों पर क्रमश: “एसो पंचणमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं एवं पढम हवइ मंगलं' का ध्यान किया जाता है। शुभचंद्र के मतानुसार मध्य एवं पूर्वादि चार दिशाओं में तो णमो अरहंताणं आदि का तथा चार विदिशाओं में क्रमशः “सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः सम्यग्चारित्राय नमः तथा सम्यक् तपसे नमः' का चिंतन किया जाता है। इनके अतिरिक्त इन दोनों नमस्कारमंत्र से सम्बन्धित अनेक ऐसे मन्त्रों या पदों का उल्लेख है जिनका ध्यान या जप करने से मनोव्याधियां शान्त होती हैं, कष्टों का परिहार होता है तथा कर्मों का आस्रव रुक जाता है। इनकी विस्तृत चर्चा हम मन्त्र साधना और जैनधर्म नामक अध्याय में कर चुके हैं। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को स्थित करने के लिए मातृका पदों बीजाक्षरों एवं मंत्राक्षरों का आलम्बन लिया जाता है। जैनाचार्यों ने यह तो माना है कि इस पदस्थ ध्यान से विभिन्न लब्धियाँ या अलौकिक शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं, किन्तु वे साधक को इनसे दूर रहने का ही निर्देश करते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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