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पुरुषार्थ
xvi १३. साधनापीठ मुख्यतः अरण्यपीठ
श्मशान, शव, श्यामा और अरण्यपीठ १४. साहित्य अल्प
विशाल १५. आधार
क्रियात्मक, भक्ति, आत्म-समर्पण १६. तत्त्वज्ञान रत्नत्रय से मोक्ष, छ: द्रव्य, रत्नत्रय (शिव, शक्ति, बिन्दु) मत, १७. देवता जिन, तीर्थंकर
शिव, विष्णु, शक्ति के विविध रूप इससे स्पष्ट है कि परिभाषा और उद्देश्यों की समानता के बावजूद भी आध्यात्मिक विकास के कार्य में जैनों ने तंत्र को कभी प्राधनता नहीं दी। उनके लिए उसका आधार तो सदाचरण ही रहा है। परिणामतः जहाँ जैनेतर तंत्रवाद अभी भी, जीवित है, जैन मंत्रतंत्रवाद उपासकों की भौतिक उपलब्धि के साधन के अतिरिक्त यथार्थतः कोई महत्त्व प्राप्त नहीं कर पाया।
प्रस्तुत कृति में प्रो० सागरमल जैन ने तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से जैन तन्त्र साधना का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है और यही इस कृति का वैशिट्य कहा जा सकता है। यद्यपि जैन मन्त्र, अथवा तान्त्रिक कर्मकाण्डों को लेकर जैन परम्परा में भी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, किन्तु उनमें कहीं भी स्पष्टता के साथ यह नहीं बताया गया है कि ये किस प्रकार अन्य परम्परा से प्रभावित हैं और उनमें जैनत्व का अंश कितना है। जबकि प्रो० सागरमल जैन ने इन तथ्यों पर विशेष बल दिया है। इस प्रकार यह कृति जैन तन्त्र पर अभी तक प्रकाशित कृतियों से भिन्न है। प्रो० सागरमल जैन, जैन-विद्या के उन मनीषियों में से हैं जो सम्प्रदाय एवं परम्परा से ऊपर उठकर निर्भीक रूप से अपनी बात रखते हैं। उनकी प्रत्येक कृति निष्पक्ष तुलना क अध्ययन की दृष्टि से विद्वत् जगत् में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। आशा है कि उनकी इस कृति का भी विद्वत् जगत् में सम्मान होगा। मैं प्रो० सागरमल जैन का आभारी हूँ कि उन्होंने अपनी इस कृति के लिए भूमिका लिखने का मुझे अवसर प्रदान किया।
' पर्युषणपर्व
३०.०८.६७
नन्दलाल जैन
रीवां
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