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XV तंत्रवाद के सामान्य विवरण की तुलना में यह कहा जा सकता है कि जैनों का मंत्र-तंत्रवाद अर्थतः तो अनादि है ही, शब्दतः भी णमोकार के रूप में और उसके आधार पर विकसित अनेक मंत्र, यंत्र और जपों के रूप में ईसापूर्व सदियों जितना पुराना तो है ही। जैन मन्त्र प्रारम्भ में अभ्युदय एवं निःश्रेयषपरक होते थे पर प्रशस्तः अध्यात्मपथी मंत्रों की मान्यता थी। इनकी साधना या जाप सात्विक वातावरण में ही की जाती थी। उत्तरवर्ती तांत्रिक वामाचार जैसी कोई साधना जैनों के लिए अकल्पनीय रही है। तथापि चरम उद्देश्यगत समानता के कारण एक ही लक्ष्य के दो विविध मार्ग उपलब्ध हुए। वामाचार की गोपनीयता एवं अलोकप्रियता ने तंत्रवाद के आध्यात्मिक रूप को प्रस्तुत किया। इससे इसमें पर्याप्त सात्विकता आई और इस रूप में जैनों के अन्तःशक्ति जागरण के पथ के विकल्प के रूप में तंत्रवाद की लौकिक स्वीकति अनमेय हो सकती है। फिर भी तंत्रवाद जैनों में सैद्धान्तिक या साधनात्मक दृष्टि से कभी लोकप्रिय नहीं रहा। जैन और जैनेतर तंत्रवाद के अभिलक्षणों को निम्न सारिणी से समझा जा सकता हैसारिणी-३ जैन एवं जैनेतर तंत्रवाद के अभिलक्षण १. सामान्य परिभाषा मंत्र जप, + यंत्र पूजन मंत्र जप, यंत्र पूजन, कुल पूजन २. उद्देश्य लौकिक एवं आध्यात्मिक, मुख्यतः लौकिक पर उद्देश्य
प्रशस्तता अध्यात्म मार्ग की ब्रह्मलीनता ३. दीक्षा-पात्र शरीरतः स्वस्थ प्रत्येक व्यक्ति सभी वर्ण, शूद्र और स्त्रियाँ ४. उद्भव स्थल मगध-कोशल (आर्य देश) गौड़ / कामाख्या (जैनों के अनुसार
अनादि देश) ५. उद्भव काल ईसा पूर्व सदियाँ
ईसोत्तर ७वीं सदी के आसपास ६. प्रकटता सार्वजनिक
अत्यंत सीमित और गुप्त ७. साधक संख्या तुलनात्मकतः अधिक, बहुत कम. एकल साधना
द्विकल-साधना ८. साधना मार्ग मानसिक/वाचिक जप पूजन दीक्षा एवं अभिषेक हेतु क्रियात्मक
अनुष्ठान, योषा या उसका प्रतिबिम्ब
आवश्यक ६. आचार अंतर्यागी समयाचार वामाचार, कौलाचार, समयाचार,
सिद्धान्ताचार १०. भाव पशुभाव
वीरभाव, दिव्यभाव ११. पूजन समयाचारी पूजन
प्रत्यक्ष योनि पूजन, श्रीचक्र योनि
पूजन
१२. गुरु
अनिवार्य नहीं ।
अनिवार्य
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